जनजागृती पक्ष दैनिक समाचार-पत्र के स्थाई स्तम्भ में प्रकाशित व्यंग्य लेख
Wednesday 15 April 2009
जाऐं तो जाऐं कहाँ
बड़ी इंतजार,चिन्तन मनन और खींचतान के बाद आखिर कोटा लोकसभा के लिऐ पूर्व महाराजा के पुत्र इज्यराज सिंह को भाजपा का अनुसरण करते हुऐ, भाजपा की ही तरह सीधे ही पैराशूट से चुनावी मैदान में उतार दिया गया।
कॉग्रेसी यह कह कर सीना फुला सकते हैं कि हमने केवल पार्टी के सदस्य को ही चुनावी मैदान में उतारा है। भले ही वह दो दिन पूर्व सदस्य बना हो लेकिन सदस्य तो आखिर सदस्य ही है। दो दिन पहले का हो या दो घण्टे पहले का।
अब भाजपा ने तो टिकिट दे कर सदस्यता दिलवाइ है।
पार्टी के आला कमान ने कहा था कि हम पार्टी के सदस्य को ही टिकिट देगें सो उन्होंने अपना वादा पूरा किया ।कुछ लोग जो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते थे उनके दिल के अरमान आंसुओं में ही बह गऐ लगता है।अब डॉ. किरोडी हों या प्रहलाद गूंजल दोनों के ही मंसूबे घरे रह गये और सारी चतुराई पर गहलोत की जादुगिरी से पानी फिर गया।
एक ओर जहाँ किरोडी जी अपने हाथ में डोर लेकेर कॉग्रेस को नचाना चाह रहे थे,वहीं दूसरी ओर गुंजल भी टिकिट फोकट में ही बिना पार्टी की सदस्यता के ही चाह रहे थे।सभी ने बहुत समझाया कि भैय्या जी जब टिकिट लेना ही है तो भला पर्टी की सदस्यता लेने में भला कैसी शर्म.....? पर नहीं साहब हमरा दिल तो भाजपा में अटका है...? क्या पता कब अपने पुराने संगी -साथियों को हमारी याद सताने लगे.....?बस यही सोचकर लटके रहे बेचारे.......।
डॉ. साहब को भी यह भ्रम सताने लगा था कि सरकार की डोर तो हमारे ही हाथ में है जब चाहेगें हिलाया, और सरकार हो जाऐगी धराशाई। लेकिन गहलोत भी कोई कच्ची गोलियां नहीं खेले हैं उन्होंने तो वह डाल ही काट डाली जिसपर बैठकर वे शिकर खेलना चाहते थे।बसपा के कुल जमा छः विधायक ही कॉग्रेस की झोली में जा बैठे।और डॉ. साहब मुँह देखते ही रह गऐ......।
कुर्सी के लिऐ लोग न जाने क्या- क्या कर जाते हैं अब बसपा विधायकों ने यदि कुर्सी के लिऐ डॉ. साहब को यदि ठेंगा दिखा भी दिया तो भला कौनसा पहाड़ टूट गया। इन्होंने भी तो कुर्सी के लिऐ ही भाजपा क दामन छोडा था......।दूसरी तरफ गुंजल साहब भी अपनी गूजर वोटों की थैली जेब में लिऐ घूमते रह गऐ।लेकिन गहलोत जी थे कि पार्टी की सदस्यता वालों को ही टिकिट दिलाने पर अडे थे।आखिर उनका टारगेट 25 का अभियन जो था। अब यह अभियान कहाँ तक सफल होता है यह तो वक्त ही बतायेगा। फिलहाल तो दोनों हथों में लड्डू रखने वालों के मंसूबों पर पानी फिर ही गया।
अब जिनका मन भटक रहा हो कहीं ओर, कुर्सी का सपना दिख रहा हो कहीं ओर ।ऐसे लोगों का कोई कर भी क्या सकता है।इनके हालात से न तो ये पिघले और न ही वे....?कुल मिलकर अभी तो न घर के रहे न घाट के.....?
(दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे स्थाई कॉलम में 15-04-09 को प्रकाशित )
डॉ.योगेन्द्र मणि
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