जनजागृती पक्ष दैनिक समाचार-पत्र के स्थाई स्तम्भ में प्रकाशित व्यंग्य लेख

Thursday, 23 April 2009

रंगत चुनाव की

( दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे कॉलम से दि.२३/०४/०९ ) जूते-चप्पल प्रूफ पिंजरा ले लो......! अबकी बार लोकसभा चुनाव मेंजुते- चप्पल से खडाऊँ तक चल गई । कब किस पर कौन कहाँ किस ब्राण्ड से वार कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता। छोटा नेता हो या बडा ,सभी इस अनचाही जूतों की बहार से बचाव के जुगाड में लगे हैं। क्योंकि अभी तो बहुत सी सभाओं में भाषण देना है......। लगता है अब तो सभी को अपना गुस्सा जाहिर करने का सस्ता मजबूत तरीका हाथ लग गया है। धन्य हो वह प्रथम पत्रकार जिसने अमेरीका के प्रथम नागरिक पर इस नवीन अश्त्र का प्रयोग कर जूते जैसी नाचीज वस्तु को भी रातों रात दुनिया भर में चमकाया......। यह अश्त्र ओर कहीं यह चला हो या नहीं भारत में तो चल ही निकला....विशेष कर चुनावों में.......। लेकिन भाजपा के कार्यकर्ताओं ने इससे बचाव का रास्ता निकालकर अपने प्रिय नेता की सुरक्षा के लिऐ मन्च पर लोहे की जालिया लगा दी हैं । अब देखते हैं कि किसीकि चप्पल या जूता हमारे नेता तक पहूँचता है।हमारे भैय्या जी ने तो भाषण देने के लिऐ मन्च के आकार के लोहे की जाली युक्त जूता चप्पल प्रूफ पिंजरों के उत्पादन की योजना बनाई है, यदि सरकार उन्हें कभी न लौटाने वाला ‌ऋण किसी बैंक से दिला दे तो...........क्योंकि चुनाव से पहले जो वसूली हो जाऐगी तो ठीक नहीं तो बाद में सब डूबेग ही......?अभी तो वे फिलहाल कुछ पार्टियों से संपर्क कर रहे है।मुझे तो लगता है भैय्या जी का प्लान आगे बढे उससे पहले गलियों में आवाजे आने लगेगीं -भाषण के पिंजरे बनवालो.....जुते-चप्पल प्रूफ पिंजरे ले लो............ दो पिंजरों के साथ एक फ्री ले लो............? _____________________________________________________________________________________________________________ चुनावीभडास _______________________________________________________________________________________________________________ एक तो मौसम की गर्मी, ऊपर से नेताओं के एक दूसरे पर टाइम पास आरोपों का पिटारा है कि रोजाना कुछ न कुछ नए संवाद सुनाई देते रहते हैं....।अब केवल चुनाव का ही तो समय मिलता है इन्हें भी अपनी -अपनी भडास निकालने का.....?क्योकि जब सांसद या मन्त्री रहते हैं तो संसद मे प्रश्न पूछने की फुरसत ही नहीं रहती नेताजी को...।वैसे हकीकत तो ये है कि अधिकांश सांसद तो केवल घर बैठे ही वेतन भत्ते जेब में रखते रहते हैं वे भला किसी से क्या प्रश्न करेगें।कुछ तो ऐसे भी हैं सरकार के भले ही सहयागी हैं मन्त्री हैं मगर चुनाव में उनकी ढ़पली अलग ही बज रही है। जिनकी महरबानी से कुर्सी पर हैं उन्हीं के लिऐ शब्दों की मनमर्जी की जुगाली करना नेतागिरी का शायद मुख्य सिद्धान्त रहा होगा.......?लेकिन चुनाव के बाद ये ही नेता सभी का वजन तोलेगें, फिर से नई समीकरण बनाने की राह खोजेगें और जिनकी अभी टांग खिचाई करते नहीं थकते हैं,मौका देखकर उन्हीं की गोद में जा बैठेगें। क्योकि कुर्सी मैय्या जब सामने बाहें पसारे खडी होती है तो अच्छॆ-अच्छे नेता भी पिघल जाते हैं क्या करें ,मजबूरी है। सारी उठापटक इस कुर्सी के लिऐ ही तो हो रही है अब भला कोई कुर्सी से मुँह कैसे मोड सकता है........।कुर्सी मिली नहीं कि सारे गिले-शिकवे दूर.....?