जनजागृती पक्ष दैनिक समाचार-पत्र के स्थाई स्तम्भ में प्रकाशित व्यंग्य लेख
Wednesday, 22 April 2009
कोई लो्टा दे मेरे बीते हुऐ दिन
कोई लौटा दे मेरे बीते हुऐ दिन..... ..... !
हमारे देशमें कुछ लोग कुर्सियों के लिऐ बने होते हैं या कुर्सियां इन लोगों के लिऐ होती हैं ।यह बात आजतक मेरी समझ से बाहर है।जब भी किसी चुनाव का समय नजदीक आता है तो ये कुर्सी पकड नेता अपनी-अपनी जुगाड में लग जाते हैं कि कहां और कैसे सेटिंग करके कुर्सी सुरक्षित की जा सकती है। क्योंकि कुर्सियां सीमित हैं और इसके आशिक अनेक .....। हर वर्ष इसके चाहने वालों में इजाफा हो जाता हैं भला क्यों न हो.....?कुर्सी सुख जिसने एक बार भोग लिया उसे बिना इसके नींद नहीं आती और जो दौड में है उसे इसकी चाहत में नींद नहीं आती।और वह भी राजनीति में सांसद या विधायक की कुर्सी.....। एक बार किसी तरह कुर्सी कब्जे में आ जाऐ बस....फिर क्या है आगे का इंतजाम तो अपने आप ही हो जाता है।हमारे देश में ऐसे -ऐसे नेता नामक जीव हैं जो भले ही कब्र में पैर लटकाऐ हैं लेकिन फिर भी बस एक बार और की रट लगाऐ ही रहते हैं।ऐसे -ऐसे कुर्सी पकड मौजूद हैं जो सरकारी खर्च की आक्सीजन पर गुजर कर रहें हैं लेकिन चुनावी मौसम का आगाज हुआ नहीं कि फिर से तैयार हो जाऐगें चुनावी समर में दो-दो हाथ आजमाने....। कुछ तो यहाँ तक अपनी पर उतर आते हैं कि पार्टी मे टिकिट नहीं दिया तो क्या हुआ निर्दलीय ही सही चुनाव तो आखिर लडना ही है....?कोई अपनी औलाद के लिऐ जुगाड में लगा है तो कोई घरवाली को राजनीति के दलदल में ला खडा करने पर आमादा है, ताकि कहीं से ही सही एक बार राजनीति में आने के बाद तो बस उनकी पैतृक सम्पत्ति ही मानो इस कुर्सी ही हो ......\हमारे दादा परदादा वसी्यत के नाम पर खेत ,खलिहान, घर आदि छोड कर जाते थे लेकिन आज कल हमारे देश के करर्णधार अपनी वसीयत में शांसद या विधायक की कुर्सी भी छोड्कर जाने लगे हैं। टिकिटों के बटवारे के बाद जब किसी कुर्सी पकड का नाम लिस्ट में नहीं होता है तो उसक चेहरा सू्खे आम की तरह लटका हुआ मिलेगा। जिस दल ने उन्हें चालीस- पचास सालों तक ढोया है अब उसीमें हजारों कमिया नजर आने लागती हैं। हमने बडे सहज भाव से विदेशी डॉक्टरों की दवाइयों पर भारत सरकार की ऑक्सीजन के सहारे दिन काट रहे एक नेता जी को गलती से सलाह दे दी-अब तो पीछा छोड दीजिऐ बेचारी इस कुर्सी का...बर्षों से आपका बोझा ढोते-ढोते इस बेचारी कुर्सी की भी सांस फूलने लग गई होगी आपकी तरह.....? वे तपाक से बोले- क्या बात कर रहें हैं आप भी...इस कुर्सी के लिऐ तो मैं सब कुछ कुर्बान कर दूँ।कुर्सी है तो जहान है ,बाकी सब सुनसान है।हम तो वैसे भी जन सेवक हैं हमें तो स्वयं के स्वास्थ्य से अधिक देश की चिन्ता रहती है।बरसों तक हमने पार्टी और देश की सेवा की है अब बुढापे में ज्यादा नहीं बस इतना ही चाहते हैं कि हमें न सही हमारी किसी औलाद को ही हमारी सेवा के बोनस के तौर पर एक अदद टिकिट ही कहीं से मिल जाता। हमने कहा-महाराज आप कुर्सी छोडेगें तो दूसरों को भी मौका मिलेगा इस्लिऐ अच्छा हो कि आप सम्मान से रिटायर्मेंट ले लें....।इस्पर वे हमें घूरते हुऐ बोले-यदि हमने रिटायरमेंट ले लिया तो इस देश का क्या होगा कभी सोचा है आपने.....?हमें हमारी चिन्ता नहीं एस देश की चिन्ता है हमारे देश को मेरे जैसे मंजे हुऐ नेताओं की जरूरत है। अभी तो हमें अपने पुत्र-पुत्रियों को भी तो सेट करना है ताकि वे भी देश की सेवा कर सकें..........?हमें तो लगता है ये कुर्सी पकड नेता जी उपर वाले के यहाँ पहुँचने पर भी कुर्सी को ही याद करते रहेगें । और गुनगुनाऐगें कोई लौटादे मेरे बीते हुऐ दिन.....॥
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सटीक आलेख लिखा है।यही सच्चाई है।बधाई।
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