जनजागृती पक्ष दैनिक समाचार-पत्र के स्थाई स्तम्भ में प्रकाशित व्यंग्य लेख
Friday, 24 April 2009
चुनावी हलचल
वसुन्धरा का झालावाड में डेरा
राजस्थान विधान सभा में काग्रेस पार्टी की सरकार बनने के बाद काग्रेस जनों में विशेष उत्साह दिखाई दे रहा है। और राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशो्क गहलोत लोक सभा चुनाव में टारगेट 25 लेकर चल रहें है । यहाँ से लोकसभा की पच्चीस सीटे हैं। दूसरी ओर भाजपा की पूर्व मुख्य मन्त्री वसुन्धरा राजे और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष माथुर पिछली बार लोकसभा की कुल 21 सीटों को बरकरार रखने पर ध्यान दे रहे हैं।
मगर इस बार स्थिति बसुन्धरा राजे के लिऐ थोडा विकट बनी हुई है।वे चुनाव प्रचार में अपने पुत्र की सीट झालावाड -बॉरा पर ही अटकी हुई हैं उन्हें प्रदेश के अन्य क्षेत्र देखने का समय ही नहीं मिल पा रहा है। जब से काग्रेस की तरफ से उर्मिला जैन को उम्मीदवार घोषित किय गया है तभी से वसुन्धरा की नींद हराम हो गई है हाँलाकि उर्मिला नई उम्मीदवार है और पहली बार ही चुनाव लड रही है। लेकिन उनके पक्ष में सबसे मुख्य बात यह है कि झालवाड उनका ननिहल है और बॉरा उनका ससुराल है। साथ ही साथ बारा के ही प्रमोद जैन जो कि राजस्थान सरकार में सार्वजनिक निर्माण मन्त्री हैं ,उनके पति भी है,उनका बॉरा क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है।गत विधान सभा में चारों सीटो पर, प्रमोद जैन के ही प्रयासों से काग्रेस ने कब्जा किया था। इसका प्रभाव लोकसभा में भी निश्चित ही पडेगा । इसी डर के कारण वसुन्धरा ने झालावाड-बॉरा में ही डेरा डाल रखा है।प्रमोद जैन की साफ-सुथरी छवि का फयदा कॉग्रेस को मिलेगा ही ऐसे अनुमान अभी से ही लगाऐ जा रहे हैं।
झालावाड की सीट पिछले बीस वर्षो से पहले वसुन्धरा और अब उनके पुत्र दुष्यन्त सिंह के पास है। इस बार दुष्यन्त सिंह के् सामने मैदान में उर्मिला का आना पूर्व मुख्य मन्त्री को बैचेन करने का मुख्य कारण रहा है ।
इस सीट पर बेटे को विजय दिलाने के लिऐ एक माँ सब कुछ करने को तैयार है। पिछले दिनों विधनसभा चुनाव के समय या उसके पहले आपसी मन मुटाव के कारण जिन लोगॊं को भाजपा ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था उन सभी को मनाने का सिलसिला जारी है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जो कि बसुन्धरा राजे को फूटी आँख भी नहीं सुहाते थे क्योंकि गुर्जर आन्दोलन के समय उनके बीच की खाइयां इतनी बढ चुकी थी जिससे लगता था कि अब इनका नजदीक आना नामुनकिन है । लेकिन सभी बातों को भुलाकर वे इन नेताओं के घर जाकर स्वयं पार्टी में वापस ला रही हैं।ताकि जहाँ से भी थोडा बहुत सहारा मिल सके ले लिया जाऐ और किसी भी तरह बेटे को विजयी बनाना ही उनका अन्तिम लक्ष्य बनता जा रहा है। और इसमें राज्य पर घ्यान देना सम्भव नहीं हो पा रहा है।
परिणाम क्या होगा यह तो समय ही बताऐगा लेकिन इतना तय है कि इस क्षेत्र से जीत या हार दोनों ही वसुन्धरा की व्यक्तिगत जीत हार ही होगी। क्योंकि उनके पुत्र दुष्यन्त सिंह का इस जीत या हार में कोई विशेष हाथ नहीं होगा । भाजपा को यहाँ से वोट केवल वसुन्धरा के नाम पर ही मिलेगें न कि दुष्यन्त सिंह के नाम पर ।गत पाँच वर्षों में यहाँ के लोग इन्हें केवल महारानी साहिबा के पुत्र के रूप में जानते हैं।
डॉ. योगेन्द्र मणि
महारानी जी घर आई हो राम जी
(दैनिक जन्जागृति पक्ष के मेरे कॉलम से दि.24/04/09 )
महारानी जी घर आई हो राम जी
मेडम रूठे हुऐ नेता जी को मनाने उनके घर पहुँचीतो नेता जी का पूरा परिवार ही मेडम के स्वागत के लिऐ तैयार था। मालाऐं पहिनाई गई ,छाछ पिलाई, मिठाई भी खिलाई। सभी प्रसन्न.....। खास तौर से नेता जी और मेडम यानि कि महारानी जी.....।सभी की बाँछे खिली थी।प्रसन्नता होनी भी चाहिऐ....राजस्थान की महान हस्ति जो पधारी थी, नेता जी को वापस घर बुलाने के लिऐ और उनका साथ माँगने के लिऐ......? घर के सदस्यों की खुशी से ऐसा लग रहा था जैसे हर कोई गुनगुना रहा हो -महारानी जी घर आई हो राम जी.......! एसे में जुम्मन चाचा ने चाय की चुस्की लेते हुऐ भैय्या जी को छेडते हुऐ कहा-कल तक महारानी जी को पानी पी-पीकर कोसने वाले नेताजी अचानक महारानी जी की शरण में कैसे आ गये...? भैय्या जी तपाक से बॊले-नेता जी महारानी जी की शरण में नहीं आऐ हैं वो तो स्वयं ही आई थी नेता जी के द्वार पर....।जुम्मन चाचा बोले-बात तो एक ही हुई....ये गये या वो आई, क्या फर्क पडता है........? --फर्क कैसे नहीं पडता है....? अभी जरूरत तो उन्हीं को है न अपने बेटे के लिऐ......और पार्टी की साख बचाऐ रखने के लिऐ ।नेता जी का क्या वे तो आराम से बैठे थे.......? _भैय्या जी हकीकत तो ये है कि जरूरत तो नेता जी को भी थी.....। उन्हें तो जमीन पर पैर रखने की भी जगह नहीं दिख रही थी। वह तो किस्मत अच्छी थी जो वे ही आगे होकर आ गई।वरना कॉग्रेस ने तो आयना दिखा ही दिया था......। ऐन समय पर उन्हें चोराहे पर लाकर खडा कर दिया....आखिर जाते भी तो कहाँ जाते नेता जी .....? --आप भी जुम्मन चाचा क्या बात करते हो ....हमारे नेता जी आखिर गुर्जर समाज के नेता हैं । -शायद समाज की उसी नेतागिरी को भुनाने की कोशिश में लगे थे नेताजी.......! तभी तो समाज के नाम पर हीरो बने एक नेता जी ने तो पहले ही भाजपा से टिकिट ले ही लिया अब ये भी कुछ पुरुस्कार पाने की उम्मीद में वापस आ गये शायद......? इन्हें लगता है कि इनके समाज की याद्दास्त बहुत कमजोर है शायद इसीलिऐ आरक्षण के नाम पर सैंकडों नारियों की मांग से सिन्दूर पौछने वालों के ही साथ आज ये वापस कन्धे से कन्धा मिलाकर खडे हैं।उन विधवाओं का सामना करने में इनके पैर नहीं डगमगाऐगें क्या......? --जुम्मन चाचा ये राजनीति है इसमें काहे की शर्म......!हमारे नेता जी ने तो कह दिया है कि राजनीति में कोई व्यक्तिगत दुश्मन नहीं होता.....।अब तुम अपने ही घर को ले लो पिछले साल जब तुम्हारा बेटा तुमसे नाराज होकर चला गया था घर से निकल कर ,तब तुम भी उसे मना कर वापस घर लेकर आये थे कि नहीं......?अब पार्टी भी तो इनका घर ही है उन्होंने मनाया और ये मान गये बस बात खत्म......!काहे को जरा सी बात को लम्बी किये जा रहे हो तुम भी......? वैसे बात भी सही हैवे रूंठे मनाये हमें क्या लेकिन जो बच्चे इनकी राजनैतिक रोटियों के चक्कर में अनाथ हो गये.......जिनका सुहाग उजड गया......जिन बहिनों के हाथ की राखियां हमेशा के लिऐ उनके हाथों में ही रह गई उनक भला इनकी राजनीति से क्या लेना देना था....?इन सब सवालों का जबाब तो इन्हें देना ही चाहिऐ.....?
डॉ. योगेन्द्र मणि
Thursday, 23 April 2009
रंगत चुनाव की
( दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे कॉलम से दि.२३/०४/०९ )
जूते-चप्पल प्रूफ पिंजरा ले लो......!
अबकी बार लोकसभा चुनाव मेंजुते- चप्पल से खडाऊँ तक चल गई । कब किस पर कौन कहाँ किस ब्राण्ड से वार कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता। छोटा नेता हो या बडा ,सभी इस अनचाही जूतों की बहार से बचाव के जुगाड में लगे हैं। क्योंकि अभी तो बहुत सी सभाओं में भाषण देना है......। लगता है अब तो सभी को अपना गुस्सा जाहिर करने का सस्ता मजबूत तरीका हाथ लग गया है। धन्य हो वह प्रथम पत्रकार जिसने अमेरीका के प्रथम नागरिक पर इस नवीन अश्त्र का प्रयोग कर जूते जैसी नाचीज वस्तु को भी रातों रात दुनिया भर में चमकाया......। यह अश्त्र ओर कहीं यह चला हो या नहीं भारत में तो चल ही निकला....विशेष कर चुनावों में.......। लेकिन भाजपा के कार्यकर्ताओं ने इससे बचाव का रास्ता निकालकर अपने प्रिय नेता की सुरक्षा के लिऐ मन्च पर लोहे की जालिया लगा दी हैं । अब देखते हैं कि किसीकि चप्पल या जूता हमारे नेता तक पहूँचता है।हमारे भैय्या जी ने तो भाषण देने के लिऐ मन्च के आकार के लोहे की जाली युक्त जूता चप्पल प्रूफ पिंजरों के उत्पादन की योजना बनाई है, यदि सरकार उन्हें कभी न लौटाने वाला ऋण किसी बैंक से दिला दे तो...........क्योंकि चुनाव से पहले जो वसूली हो जाऐगी तो ठीक नहीं तो बाद में सब डूबेग ही......?अभी तो वे फिलहाल कुछ पार्टियों से संपर्क कर रहे है।मुझे तो लगता है भैय्या जी का प्लान आगे बढे उससे पहले गलियों में आवाजे आने लगेगीं -भाषण के पिंजरे बनवालो.....जुते-चप्पल प्रूफ पिंजरे ले लो............ दो पिंजरों के साथ एक फ्री ले लो............? _____________________________________________________________________________________________________________
चुनावीभडास
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एक तो मौसम की गर्मी, ऊपर से नेताओं के एक दूसरे पर टाइम पास आरोपों का पिटारा है कि रोजाना कुछ न कुछ नए संवाद सुनाई देते रहते हैं....।अब केवल चुनाव का ही तो समय मिलता है इन्हें भी अपनी -अपनी भडास निकालने का.....?क्योकि जब सांसद या मन्त्री रहते हैं तो संसद मे प्रश्न पूछने की फुरसत ही नहीं रहती नेताजी को...।वैसे हकीकत तो ये है कि अधिकांश सांसद तो केवल घर बैठे ही वेतन भत्ते जेब में रखते रहते हैं वे भला किसी से क्या प्रश्न करेगें।कुछ तो ऐसे भी हैं सरकार के भले ही सहयागी हैं मन्त्री हैं मगर चुनाव में उनकी ढ़पली अलग ही बज रही है। जिनकी महरबानी से कुर्सी पर हैं उन्हीं के लिऐ शब्दों की मनमर्जी की जुगाली करना नेतागिरी का शायद मुख्य सिद्धान्त रहा होगा.......?लेकिन चुनाव के बाद ये ही नेता सभी का वजन तोलेगें, फिर से नई समीकरण बनाने की राह खोजेगें और जिनकी अभी टांग खिचाई करते नहीं थकते हैं,मौका देखकर उन्हीं की गोद में जा बैठेगें। क्योकि कुर्सी मैय्या जब सामने बाहें पसारे खडी होती है तो अच्छॆ-अच्छे नेता भी पिघल जाते हैं क्या करें ,मजबूरी है। सारी उठापटक इस कुर्सी के लिऐ ही तो हो रही है अब भला कोई कुर्सी से मुँह कैसे मोड सकता है........।कुर्सी मिली नहीं कि सारे गिले-शिकवे दूर.....?
Wednesday, 22 April 2009
कोई लो्टा दे मेरे बीते हुऐ दिन
कोई लौटा दे मेरे बीते हुऐ दिन..... ..... !
हमारे देशमें कुछ लोग कुर्सियों के लिऐ बने होते हैं या कुर्सियां इन लोगों के लिऐ होती हैं ।यह बात आजतक मेरी समझ से बाहर है।जब भी किसी चुनाव का समय नजदीक आता है तो ये कुर्सी पकड नेता अपनी-अपनी जुगाड में लग जाते हैं कि कहां और कैसे सेटिंग करके कुर्सी सुरक्षित की जा सकती है। क्योंकि कुर्सियां सीमित हैं और इसके आशिक अनेक .....। हर वर्ष इसके चाहने वालों में इजाफा हो जाता हैं भला क्यों न हो.....?कुर्सी सुख जिसने एक बार भोग लिया उसे बिना इसके नींद नहीं आती और जो दौड में है उसे इसकी चाहत में नींद नहीं आती।और वह भी राजनीति में सांसद या विधायक की कुर्सी.....। एक बार किसी तरह कुर्सी कब्जे में आ जाऐ बस....फिर क्या है आगे का इंतजाम तो अपने आप ही हो जाता है।हमारे देश में ऐसे -ऐसे नेता नामक जीव हैं जो भले ही कब्र में पैर लटकाऐ हैं लेकिन फिर भी बस एक बार और की रट लगाऐ ही रहते हैं।ऐसे -ऐसे कुर्सी पकड मौजूद हैं जो सरकारी खर्च की आक्सीजन पर गुजर कर रहें हैं लेकिन चुनावी मौसम का आगाज हुआ नहीं कि फिर से तैयार हो जाऐगें चुनावी समर में दो-दो हाथ आजमाने....। कुछ तो यहाँ तक अपनी पर उतर आते हैं कि पार्टी मे टिकिट नहीं दिया तो क्या हुआ निर्दलीय ही सही चुनाव तो आखिर लडना ही है....?कोई अपनी औलाद के लिऐ जुगाड में लगा है तो कोई घरवाली को राजनीति के दलदल में ला खडा करने पर आमादा है, ताकि कहीं से ही सही एक बार राजनीति में आने के बाद तो बस उनकी पैतृक सम्पत्ति ही मानो इस कुर्सी ही हो ......\हमारे दादा परदादा वसी्यत के नाम पर खेत ,खलिहान, घर आदि छोड कर जाते थे लेकिन आज कल हमारे देश के करर्णधार अपनी वसीयत में शांसद या विधायक की कुर्सी भी छोड्कर जाने लगे हैं। टिकिटों के बटवारे के बाद जब किसी कुर्सी पकड का नाम लिस्ट में नहीं होता है तो उसक चेहरा सू्खे आम की तरह लटका हुआ मिलेगा। जिस दल ने उन्हें चालीस- पचास सालों तक ढोया है अब उसीमें हजारों कमिया नजर आने लागती हैं। हमने बडे सहज भाव से विदेशी डॉक्टरों की दवाइयों पर भारत सरकार की ऑक्सीजन के सहारे दिन काट रहे एक नेता जी को गलती से सलाह दे दी-अब तो पीछा छोड दीजिऐ बेचारी इस कुर्सी का...बर्षों से आपका बोझा ढोते-ढोते इस बेचारी कुर्सी की भी सांस फूलने लग गई होगी आपकी तरह.....? वे तपाक से बोले- क्या बात कर रहें हैं आप भी...इस कुर्सी के लिऐ तो मैं सब कुछ कुर्बान कर दूँ।कुर्सी है तो जहान है ,बाकी सब सुनसान है।हम तो वैसे भी जन सेवक हैं हमें तो स्वयं के स्वास्थ्य से अधिक देश की चिन्ता रहती है।बरसों तक हमने पार्टी और देश की सेवा की है अब बुढापे में ज्यादा नहीं बस इतना ही चाहते हैं कि हमें न सही हमारी किसी औलाद को ही हमारी सेवा के बोनस के तौर पर एक अदद टिकिट ही कहीं से मिल जाता। हमने कहा-महाराज आप कुर्सी छोडेगें तो दूसरों को भी मौका मिलेगा इस्लिऐ अच्छा हो कि आप सम्मान से रिटायर्मेंट ले लें....।इस्पर वे हमें घूरते हुऐ बोले-यदि हमने रिटायरमेंट ले लिया तो इस देश का क्या होगा कभी सोचा है आपने.....?हमें हमारी चिन्ता नहीं एस देश की चिन्ता है हमारे देश को मेरे जैसे मंजे हुऐ नेताओं की जरूरत है। अभी तो हमें अपने पुत्र-पुत्रियों को भी तो सेट करना है ताकि वे भी देश की सेवा कर सकें..........?हमें तो लगता है ये कुर्सी पकड नेता जी उपर वाले के यहाँ पहुँचने पर भी कुर्सी को ही याद करते रहेगें । और गुनगुनाऐगें कोई लौटादे मेरे बीते हुऐ दिन.....॥
Tuesday, 21 April 2009
रंगत चुनाव की
(दैनिक जन जागृति पक्ष के मेरे कॉलम से,दि.21/04/09)
कब तक रूंठे रहोगे......? _______________________________________________________________
गुर्जरों के आरक्षण के नाम पर तात्कालिक सरकारी पक्ष के विधायक होते हुऐ भी अपनी ही सरकार से पंगा लेने के अपराध में हाडोती का यह पूर्व नेता अभी तक भी वनवास ही भुगत रहा है ।सोचा था कि अब तो हम पक्के राष्ट्रीय नेता हो गये है । आन्दोलन के कारण अच्छा नाम भी हो गया है लेकिन गत विधान सभा चुनाव में निर्दलीय लडकर शायद उन्हें आभास होने लगा था कि किसी न किसी पार्टी का साथ या हाथ बहुत जरूरी है अब चाहे वहकिसी का भी हाथ हो।लेकिन भला यह क्या हाथ वालों ने हाथ ही नहीं थामा..........?ऐसे में महरानी जी ने समझदारी दिखाते हुऐ इनका दरवाजा खटखटाया है और कमल के साथ वापस घर बुलाया है।हाडोती के वरिष्ठ जनों के साथ उनके दरवाजे पर जाकर मनुहार की है कि आखिर कब तक रूंठे रहोगे.........? घर का मामला है घर -घर में बर्तन बजते हैं लौट भी आओ........?अब भूलो कल की बातें कल की बात पुरानी....। अब जिससे झगडा शुरु हुआ था जब वही दरवाजे पर आ गया तो भला कैसी नाराजगी.......?इसी को तो कहते हैं राजनीति......जहाँ राज के लिऐ सभी नीतियों को ताक पर रख दिया जाता है ......क्योंकि अपना तो ध्येय ही मात्र कुर्सी पकड नीति रह गया है । समाज और जनता का क्या इसकी तो याद्दाश्त ही कमजोर होती है। थोडे दिनों बद ही सब भूल जाऐगी......? _______________________________________________________________
पुत्र मोह में........! _______________________________________________________________________________________________________________
हाडोती की झालावड़-बॉरा संसदीय सीट पर इस बार कुछ ज्यादा ही निगाहें लोगॊं की लगी हैं । बीस वर्षों से इस सीट पर अपना प्रभुत्व जमाऐ रखने के बावजूद महारानी जी की नींद हराम हो गई है ।और वह भी एक अनजान महिला के नाम से......?भले ही उम्मीदवार नया है लेकिन माता श्री का पुत्र मोह है कि जरा सा भी रिस्क लेने के मूड में वे नहीं है। भला लें भी क्यों .......?सामने खडी महिला उम्मीदवार राजस्थान सरकार मे मंन्त्री जी की धर्म पत्नी जो हैं कहते हैं कि बॉरा जिले की चारों विधान सभा सीटें अपनी जेब में जो रख रखी हैं......।तभी तो अपने पुत्र को एक बार फिर सांसद की कुर्सी तक पहुँचाने के लिऐ दृढ़ संकल्प मातृ प्रेम ,बार -बार घूम फिर कर झालावाड-बॉरा पहुँच ही जाता है। कभी किसी रूंठे को मनाया जा रहा है तो कभी विरोधियों को अपने साथ जोडा जा रहा है.....। क्योंकि यहाँ से सांसद भले ही उनका पुत्र हो लेकिन जनता वोट तो उन्हें ही देती है। इसलिऐ इस सीट सॆ हार भी उनकी तो जीत भी उन्हीं की ही होगी.......।
Monday, 20 April 2009
रंगत चुनाव की
(दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे कॉलम से दि.20/04/09)
राजा भी प्रजा के दरबार में _____________________________________________________________________________________________________________हमारे देश में लोकतन्त्र की नैया पार लगाने के लिऐ चुनावी मौसम का आगमन हो चुका है । जैसे -जैसे चुनाव में खडे होने वाले उम्मीदवारो का लेखा जोखा सामने आ रहा है वैसे-वैसे हमारी आँखें भी चुंधियाने लगी हैं।हर कोई जन सेवक करोडों का मालिक है और सभी को गरीबों की चिन्ता है।जनता की सेवा के लिऐ हर खास-ओ- आम से लेकर राजघराने तक के लोग लाइन में लगें हैं।जिनके दर्शनों के लिऐ लोग तरसते थे वे आज जनता के सामने याचक बन कर कर खडे हैं।यह एक अलग बात है कि चुनाव जीतनें के बाद ये ही जनसेवक ईद के चाँद की तरह बडी मुशकिल से नजर आते हैं । मगर फिर भी आज जब भी कोई राजघराने का व्यक्ति स्वयं चलकर प्रजा के सामने खडा होता है तो प्रजा तो वैसे ही धन्य हो जाती है ।अब यह अलग बात है कि प्रजा की यह आत्मीयता वोट में कहाँ तक तब्दील हो पाती है। क्योंकि यह जनता है भैय्या सब जानती है, तभी तो भरत में लोकतन्त्र जिन्दा है.....। ______________________________________________________________________________________________________________
मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ _______________________________________________________________________________________________________________
मीणा समाज के हमदर्द बनने के लिऐ जी जान से जुटे कुछ लोग अभी भी फैसला नहीं ले पा रहे हैं है कि उन्हें करना क्या है......?एक तरफ सत्ताधरी पार्टी को समर्थन दिया जा रहा है तो दूसरी ओर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उसीके खिलाफ चुनाव के मैदान में ताल ठोक कर खडे हैं ।साथ ही सत्तधारी दल के अध्यक्ष के लिऐ चुनाव प्रचार का एलान भी कर रहें हैं । उनका कहना है कि सी. पी जोशी तो अच्छे इंसान हैं तो भला बुरा आदमी इस राजनीति में कौन मिलेगा सभी एक से एक आला दर्जे के भलमानुष ही तो आते हैं राजनीति मैं। हाँ यह अलग बात है कि लोगों का आंकलन करते समय हमारा नजरिया जरुर समय समय पर ,अपनी सुविधा के अनुसार बदलता रहता है।तभी तो किरोडी जी दोनों हाथ में लड्डू रखने के चक्कर में कभी उनकी प्रशंसा करते हैं तो कभी कोसना शुरू कर देते हैं।शायद अकेले में वे गुनगुनाते होंगे कि मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं बडी मुशकिल पडी है किधर जाऊं............?क्योंकि भले ही उन्होंने निर्दलीय पर्चा भर दिया हो लेकिन गहलोत साहब ने भी अभी आस नहीं छोडी है तभी तो अभी तक दरवाजे खुले हैं आखिर किरोडी जी एक अच्छे आदमी हैं........। _______________________________________________________________________________________________________________
प्यार की झप्पीऔर पप्पी __________________________________________________________________________________________________________
मुन्नाभाई यानि संजय दत्त साहब चुनावी भाषण में प्यार की झप्पी के साथ बहिन जी के लिऐ प्यार की पप्पी देने का ऐलान क्या किया कि प्रताप गढ़ के डीएम का नोटिस जारी हो गया कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन हुआ है आप न तो प्यार की झप्पी देगें और न ही पप्पी.....? मुन्ना भाई सोचते होगें कि भला यह कैसा संहिता का चक्कर है तैश में कुछ बोलो तो भडकाऊ भाषण का डर प्यार से बोलो तो भी डर आखिर वे बेचारे करें भी तो क्या करें इससे अच्छे तो वे फिल्मों में ही थे ।वहां जब जिसे चाहा झप्पी दो जब मन चाहा पप्पी दो .... कोई झन्झट ही नहीं है किसी भी तरह का.............?अब इस झप्पी-पप्पी का जबाब किस भाषा में देना है इसके लिऐ किसी भले आदमी से ही सलाह लेनी होगी क्योंकि अभी तो पहले के केस ही नहीं सुलझ रहे है और राह चलते अमर सिंह के चक्कर में अब एक केस ओर गले पड जाऐगा.....?
राजा भी प्रजा के दरबार में _____________________________________________________________________________________________________________हमारे देश में लोकतन्त्र की नैया पारलगाने के लिऐ चुनावी मौसम का आगमन हो चुका है । जैसे -जैसे चुनाव में खडे होने वाले उम्मीदवारो का लेखा जोखा सामने आ रहा है वैसे-वैसे हमारी आँखें भी चुंधियाने लगी हैं।हर कोई जन सेवक करोडों का मालिक है और सभी को गरीबों की चिन्ता है।जनता की सेवा के लिऐ हर खास-ओ- आम से लेकर राजघराने तक के लोग लाइन में लगें हैं।जिनके दर्शनों के लिऐ लोग तरसते थे वे आज जनता के सामने याचक बन कर कर खडे हैं।यह एक अलग बात है कि चुनाव जीतनें के बाद ये ही जनसेवक ईद के चाँद की तरह बडी मुशकिल से नजर आते हैं । मगर फिर भी आज जब भी कोई राजघराने का व्यक्ति स्वयं चलकर प्रजा के सामने खडा होता है तो प्रजा तो वैसे ही धन्य हो जाती है ।अब यह अलग बात है कि प्रजा की यह आत्मीयता वोट में कहाँ तक तब्दील हो पाती है। क्योंकि यह जनता है भैय्या सब जानती है, तभी तो में लोकतन्त्र जिन्दा है.....। ______________________________________________________________________________________________________________मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ _______________________________________________________________________________________________________________
मीणा समाज के हमदर्द बनने के लिऐ जी जान से जुटे कुछ लोग अभी भी फैसला नहीं ले पा रहे हैं है कि उन्हें करना क्या है......?एक तरफ सत्ताधरी पार्टी को समर्थन दिया जा रहा है तो दूसरी ओर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में उसीके खिलाफ चुनाव के मैदान में ताल ठोक कर खडे हैं ।साथ ही सत्तधारी दल के अध्यक्ष के लिऐ चुनाव प्रचार का एलान भी कर रहें हैं । उनका कहना है कि सी. पी जोशी तो अच्छे इंसान हैं तो भला बुरा आदमी इस राजनीति में कौन मिलेगा सभी एक से एक आला दर्जे के भलमानुस ही तो आते हैं राजनीति मैं। हाँ यह अलग बात है कि लोगों का आंकलन करते समय हमारा नजरिया जरुर समय समय पर ,अपनी सुविधा के अनुसार बदलता रहता है।तभी तो किरोडी जी दोनों हाथ में लड्डू रखने के चक्कर में कभी उनकी प्रशंसा करते हैं तो कभी कोसना शुरू कर देते हैं।शायद अकेले में वे गुनगुनाते होंगे कि मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं बडी मुशकिल पडी है किधर जाऊं............?क्योंकि भले ही उन्होंने निर्दलीय पर्चा भर दिया हो लेकिन गहलोत साहब ने भी अभी आस नहीं छोडी है तभी तो अभी तक दरवाजे खुले हैं आखिर किरोडी जी एक अच्छे आदमी हैं........। _______________________________________________________________________________________________________________प्यार की झप्पीऔर पप्पी __________________________________________________________________________________________________________मुन्नाभाई यानि संजय दत्त साहब चुनावी भाषण में प्यार की झप्पी के साथ बहिन जी के लिऐ प्यार की पप्पी देने का ऐलान क्या किया कि प्रता्पगढ के डीएम का नोटिस जारी हो गया कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन हुआ है आप न तो प्यार की झप्पी देगें और न ही पप्पी.....? मुन्ना भाई सोचते होगें कि भला यह कैसा संहिता का चक्कर है तैश में कुछ बोलो तो भडकाऊ भाषण का डर प्यार से बोलो तो भी डर आखिर वे बेचारे करें भी तो क्या करें इससे अच्छे तो वे फिल्मों में ही थे ।वहां जब जिसे चाहा झप्पी दो जब मन चाहा पप्पी दो .... कोई झन्झट ही नहीं है किसी भी तरह का.............?अब इस झप्पी-पप्पी का जबाब किस भाषा में देना है इसके लिऐ किसी भले आदमी से ही सलाह लेनी होगी क्योंकि अभी तो पहले के केस ही नहीं सुलझ रहे है और राह चलतेअम्र सिंह के चक्कर में अब एक केस ओर गले पड जाऐगा.....?
Sunday, 19 April 2009
रंगत चुनाव की
दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे कॉलम से दि. 18/04/09
रंगत चुनाव की
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बैसला का फैंसला
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राजस्थान के गुर्जरों को आरक्षण की आग में धकेलने वाले आज स्वयंभजपा के नेता बन बैठे है।जिस भाजपा सरकार के राज में दर्जनों गुर्जर गोलियों से भून दिये गये और कर्नल बैसला के नेतृत्व में हजारों लोग,गुर्जरों की लाशों की नुमाइश लगाये बैठे रहे ,सूखी रोटियां खा-कर पानी पी पी कर बैसला जी जिन्हें कोसते रहे।अब वे उसी कमल की ठंडी छांव में लोकसभा का चुनाव लड़ेगें। क्योंकि भाजपा ने कर्नल बैसला कोसवाईमाघोपुर-टोंक से टिकिट दिया है।लगता है बैसला साहब जुर्जर आन्दोलन में मरे दर्जनों शवों की गन्ध लोकसभा की हसीन कुर्सी के आगे भुला चुके हैं।तभी तो कल जिनसे गुर्जरों के खून का हिसाब मांगा जा रहा था आज उन्हीं के कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ खडे होने में ये गौरवान्वित हो रहे हैं।उनकी नेतागिरी का राज लोगों को अब समझ में आया कि वे बार-बार महारानी जी के दरबार में समझोते की जाजम बिछाने के लिऐ क्यों जाते थे। धन्य कुर्सी मैय्या....बाप बड़ा न मैय्या सबसे बड़ी कुर्सी मैय्या....? _____________________________________________________________________________________________________________
मामा कंस ______________________________________________________________________________________________________________
डॉ.किरोड़ी लाल आखिर न न करते हुऐ निर्दलीय ही चुनावी समर में उतर ही गाऐ।कॉग्रेस ने उन्हें अपना हाथ नहीं थामाया तो अब बेचारे करते भी क्या.....?वे तो न घर के रहे न घाट के ..। उन्होंने सोचा था कि कॉग्रेस की दशा ऐसी हो जाऐ कि वे उनपर निर्भर रहें लेकिन हो गया उल्टा ही.....।कल जॊ उनके साथ थे आज वे गहलोत का हाथ थामें हैं आखिर कुर्सी का सवाल है....?अब भला मामा परसादी लाल भी भला क्यों पीछे रहते ,उन्होंने भी डॉ. साहब का साथ छोड़ दिया तो डॉ. साहब ने उन्हें मामा कंस की उपाधी से जा नवाजा है।क्योंकि राजस्थान सरकार में मन्त्री परसादी लाल मीण डॉ. किरोडी के मामा भी हैं। अब मामा ,भानजे की हिफाजत नहीं कर पाऐगा तो कंस मामा ही तो कहलाऐगा......। हो सकता है उनकी बात भी सही हो क्यॊंकिकंस मामा ने भी तो अपनी कुर्सी की सुरक्षा के लिऐ ही सारे हथकंडे अपनाऐ थे और ये भी अपनी कुर्सी कि सुरक्षा के लिऐ ही सब कुछ कर रहे हैं।कुर्सी सुरक्षा में भला बुराई भी क्या है....?कहने वाले अब कंस कहें या कुछ और भला क्या फर्क पडता है......। ______________________________________________________________________________________________________________
करोंड़ों के जन सेवक _______________________________________________________________
अजब है पर सच है कि आम आदमी का पूरा जीवन ही होम हो जाता है तब भी करोड़ क्या लाख रुपये कैसे होते हैं बस कल्पना ही करता रह्ता है ।कभी बीबी की फटी साडी की चिन्ता तो कभी बच्चों के स्कूल की फीस की....!लेकिन हमारे जनसेवकों को पास न जाने कौनसा जादू आता है कि पाँच साल में ही उनकी सम्पत्ती चोगुनी और दस गुनी तक हो जाती है। जबकि उनके वेतन का हिसाब लगाया जाऐ तो कहीं से भी गणित ठीक नहीं बैठता।ओर तो ओर करोडों की सम्पत्ती जमा करके भी किसी के पास घर नहीं तो किसी के पास वाहन नहीं है बेचारे न जाने कैसे गुजर करते है। प्यारी जनता के प्यार में उन्हें खुद के छप्पर तक की चिन्ता नहीं है।क्या ही अच्छा हो यदि ये लोग आम जनता को भी धन को पंख लगाने का कोई फार्मूला बता दें तो मेरे देश का हर गरीब लखपति और करोडपति हो जाऐ.और मिनटों में ही विदेशी कर्ज तक उतर जाये......?
Friday, 17 April 2009
रंगत चुनाव की
(दैनिक जन जागृति पक्ष में प्रकाशित मेरे स्थाई कॉलम से )
दि .17/04/09
// चुनावी मौसम // _______________________________भूल सुधार---------------
चुनावी मौसम में अचानक बदलाव आ गया है। कोटा के पूर्व जिला प्रमुख जिन्होंने पिछले तीस सालों से कमल का दामन थाम रखा था अचानक उन्हें कमल की गंध से एलर्जी हो गई हैऔर कमल से नाता तोड़कर हाथी पर सवारी करने का का विचार बना लिया है।भाजपा से पहलेविधान सभा और अब लोकसभा में उनकी नहीं सुनने पर उन्हें अहसास हो गया है कि भाजपा की नीतियां देश हित में नहीं है। इसलिऐ देशहित को ध्यान में रखकर वेहाथी पर सवारी करने जा रहें है और शुक्रवार को कोटा से उम्मीदवारी का पर्चा दाखिल करेंगे। उन्हें लगता है कि बहिन जी के सानिध्य में वे देशहित कर सकेगें । लगता हैउनके जिलाप्रमुख के कार्यकाल में जो उन्होंने देश का नुकसान किया अब वे उसे सुधारना चाहते हैं। -----------------------------------------------------------------------------------------------------------गूर्जरों को लॉलीपाप______________________
गूर्जरों को पिछली राजस्थान सरकार ने आरक्षण का लॉलीपाप थमा कर बैसला को अपनी गोद में बिठा लियाथा। इसबार हाथी पर सवार बहिन जी ने राजस्थान में प्रवेश करने के लिऐ गुर्जरों की तरफ आरक्षण का नया पैतरा फैका है।लगता है आरक्षण ही एक ऐसा अचूक बाण आजकल नेताओं के पास बचा है जिसके माध्यम से भोली भाली जनता को आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है। किसीने सही ही कहा है कि जब तक बेवकूफ बनने वाले मिलते रहेगें बनाने वालों की कमी नहीं आने वाली......।राजस्थान विधान सभा में हालाकि बहिन जी के छः विधायक आ गये थे हाथी पर सवार होकर ,मगर क्या करें कुर्सी के लिऐ हाथी से छलांग लगाकर गहलोत सरकार का हाथ थामने से बहिन जी वापस शून्य पर जा पहुँची..।आखिर बहिन जी भी तो यह सब मात्र कुर्सी के लिऐ ही कर रही हैं....?
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जात सम्भालूं या हाथ.....?__________________________
गरजू लाल जी पिछले विधान सभा चुनाव से पूर्व ही जात- पांत के चक्कर में कमल के साथ से हाथ धो बैठे थे। उन्हें न जाने कैसे भ्रम हो गया कि वे जाति विशेष के नेता बन गये और उनकी जाति के सभी लोग उनके ही पीछे हैं।उन्हें पक्का विश्वास था कि जात और हाथ का सहयोग बना रहा तो निश्चित ही वे कुर्सी पर पुनः विराजमान हो ही जाऐगें।इस भ्रम में ही उन्होंने अपने पुराने क्षेत्र से हाथ का साथ देते हुऐ हाथ के साथ जात के दम पर चुनाव लडा मगर चारों खाने चित...इधर भी और उधर भी....।या कह जाइ कि खुद तो डूबे ही सनम उन्हें भी ले डूबे।अब लोकसभा में उन्हें एक बार फिर उम्मीद थी कि वे उनका साथ देते हुऐ अपनि रेलगाडी में लटका लेंगे ।मगर उन्होंने भी कह दिया कि पहले आप हमारा हाथ थाम कर मजबूती प्रदान करें तो हम भी कुछ सोचेगें.....?मगर इन्हें तो शायद हाथ से ज्यादा जात पर विश्वास था इसीलिऐ आखिर तक लटके रहे कि मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ...?और अन्त में ट्रेन की सारी सीटें ही फुल हो गई। अब वे अपनी किस्मत को कोस रहे है कि हाथ का साथ थाम लेता तो शायद जात का साथ अपने आप ही मिल जाता। मगर अब वे दोष दे रहे हैम उन पर कि उन्होंने हाथ झटक कर हमें तो सडक पर ला दिया.....। यह निर्णय तो उन्हें ही करना था कि उन्हें जात सम्भालनी है या हाथ..............?
डॉ.योगेन्द्र मणि
Thursday, 16 April 2009
चुनावी मौसम
----------------------------------------------------------------------------_लोकसभा चुनाव पर विशेष कालम ‘चुनावी मौसम_’__जन जागृति पक्ष में प्रकाशित दि. 15-04-09 ____________________________________
लंगर का स्वाद
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नामांकन की तारीख घोषित होते ही गडाबडाने लगता है।कभी भरी सर्दी में भी गर्मी का अहसास होने लगता है तो कहीं गर्मी में भी माहोल में ठंडक बनी रहती है।यहाँ तो स्थिति ये है कि सूर्य देव की कृपा से जहाँ सभी को वैसे ही गर्मी का अहसास हो रहा है ,वहीं चुनावी भाषणों और रैलियों से गर्मी बढ़्ती जा रही है। लेकिन ऐसी गर्मी में भी कुर्सी की चाहत भी ऐसीबला है कि लोगों को तपती दोपहरी भी ए.सी. की ठंडक दे रही है।बैसाखी और अम्बेडकर जैयन्ती हर साल कब आती है और कब चली जाती है इसका अहसास कुछ लोगों को तो शायद पहली बार ही हुआ होगा। चलो अच्छा है चुनाव के बहाने ही सही यह तो मालूम ही हो गया कि बैसाखी और अम्बेडकर जैयन्ति भी हमारे देश में मनाई जाती है। तभी तो महाराजा साहब हों या इंजीनियर साहब सभी पहुँच गये लावा-लश्कर के साथ गुरुद्वारे में मथ्था टेकने।इस बहाने दरबार में हाजरी भी हो गई और साथ ही लंगर का स्वाद भी चख लिया......।अब यह भी एक संयोग ही था कि दोनों बडे दलों के उम्मीदवार एक ही साथ गुरुग्रंथ साहिब के दरबार में हाजरी लगाने पहुँचे थे जिससे इन्हें भी एक दूसरे को हाय हेलो कहने का मौका तो मिल गया\ दोनों ने एक दूसरे से अपने लिऐ वोट माँगी या नहीं मैं नहीं कह सकता लेकिन इतना तय है कि दोनों ही मन ही मन यह जरूर सोच रहे होंगे कि ये कहाँ से आ टपके इस समय.....? अब इन लोगों से कोई पूछे ले कि अब से पहले भल कौन-कौन कितनी बार गया यहाँ पर मथ्था टेकने.....और लंगर चखनेतो सभी शायद बगलें झाकने लगें.....?वैसे भी इन्हें लंगर वंगर से भला क्या लेना देना....? इस बहाने मुफ्त में भीड मिल गई और अपना भी प्रचार हो गया बस......... और भला किसी को क्या चाहिऐ इस चुनावी मौसम में किसी भी उम्मीदवार को........?
डॉ.योगेन्द्र मणि
डॉ. किरोडी ने रंग दिखाया
डॉ. किरोडी ने रंग दिखाया
राजस्थान सरकार में मन्त्री रहे डॉ. किरोडी लाल मीणा जो कभी भाजपा के वरिष्ठ नेता कहलाते थे और अब विधान सभा चुनाव से पूर्व भाजपा छोड़ कर निर्दलीय चुनाव लडकर विधायक है और कॉग्रेस सरकार के सहयोगी है, ने आखिर अपना रंग दिखा ही दिया ।जब से चुनाव प्रक्रिया प्रारम्भ हुई है तभी से निर्दलीय विधायक मीणा राजस्थान के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत को लोकसभा सीटॊं के बटवारे के नाम पर ब्लेक मेल करने में लगे थे। उनकी मंशा थी कि पाँच से दस सीटों पर उनकी मर्जी से मीणा उम्मीदवारों को वे खडा करें । मगर गहलोत की राजनीती के सामने उनकी गोटियां फेल हो गई। निर्दलीय विधयक डॉ मीणा का विचार था कि वे विधान सभा की निर्दलीय सीट पर बने रहकर ही कॉग्रेस उनके लिऐ दौसा की सीट छोड दे और वे वहाँ से निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे। लेकिन मुख्य मन्त्री अशोक गहलोत की रणनीति के चलते डॉ किरोडी चारों खाने चित हो गये क्योंकि जिन मीणा बल पर उन्हें गुरूर था वे सभी कॉग्रेस में शामिल हो गये। राजस्थान विधान सभा की 200 सीटों में से सत्ताधारी कॉग्रेस के पास केवल 96 सीटें ही थी । डॉ. किरोडी ने सरकार को समर्थन के बदले स्वयं की पत्नी गोलमा देवी को राज्य मन्त्री भी बनवा दिया था । लेकिन अब गहलोत ने 6 बसपा विधायकों को कॉग्रेस में शामिल कर बहुमत के लिऐ आवश्यक 101 का जादुई आंकडा छू लिया है और उसे अब किसी के समर्थन की आवश्यकता नहीं है। ज्ञात रहे सार्वजनिक रूप सेडॉ. किरोडी हमेशा ही चुनाव नहीं लडने और कॉग्रेस को समर्थन की बात कहते रहे हैं साथ ही अंदरूनी तौर पर कॉग्रेस पर यह दबाव डालते रहे हैं कि वह लोक सभा की 25 में से 24 पर ही चुनाव लडे और एक सीट स्वयं डॉ. किरोडी के लिऐ छोडे़ । लेकिन मुख्यमन्त्री गहलोत के टारगेट 25 के सामने उनकी एक नहीं चली और अंततः डॉ .मीणा को अपने मन की बात सार्वजनिक रूप से कहनी ही पड़ी कि वे अब निर्दलीय चुनाव लडेगें।अपनी पत्नी गोलमा द्वारा मन्त्री मंडल से त्याग-पत्र दिलाने का हथियार भी आखिर फेल ही रहा।
(दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे स्थाई कालम में 15-04-09 को प्रकाशित)
Wednesday, 15 April 2009
जाऐं तो जाऐं कहाँ
बड़ी इंतजार,चिन्तन मनन और खींचतान के बाद आखिर कोटा लोकसभा के लिऐ पूर्व महाराजा के पुत्र इज्यराज सिंह को भाजपा का अनुसरण करते हुऐ, भाजपा की ही तरह सीधे ही पैराशूट से चुनावी मैदान में उतार दिया गया।
कॉग्रेसी यह कह कर सीना फुला सकते हैं कि हमने केवल पार्टी के सदस्य को ही चुनावी मैदान में उतारा है। भले ही वह दो दिन पूर्व सदस्य बना हो लेकिन सदस्य तो आखिर सदस्य ही है। दो दिन पहले का हो या दो घण्टे पहले का।
अब भाजपा ने तो टिकिट दे कर सदस्यता दिलवाइ है।
पार्टी के आला कमान ने कहा था कि हम पार्टी के सदस्य को ही टिकिट देगें सो उन्होंने अपना वादा पूरा किया ।कुछ लोग जो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते थे उनके दिल के अरमान आंसुओं में ही बह गऐ लगता है।अब डॉ. किरोडी हों या प्रहलाद गूंजल दोनों के ही मंसूबे घरे रह गये और सारी चतुराई पर गहलोत की जादुगिरी से पानी फिर गया।
एक ओर जहाँ किरोडी जी अपने हाथ में डोर लेकेर कॉग्रेस को नचाना चाह रहे थे,वहीं दूसरी ओर गुंजल भी टिकिट फोकट में ही बिना पार्टी की सदस्यता के ही चाह रहे थे।सभी ने बहुत समझाया कि भैय्या जी जब टिकिट लेना ही है तो भला पर्टी की सदस्यता लेने में भला कैसी शर्म.....? पर नहीं साहब हमरा दिल तो भाजपा में अटका है...? क्या पता कब अपने पुराने संगी -साथियों को हमारी याद सताने लगे.....?बस यही सोचकर लटके रहे बेचारे.......।
डॉ. साहब को भी यह भ्रम सताने लगा था कि सरकार की डोर तो हमारे ही हाथ में है जब चाहेगें हिलाया, और सरकार हो जाऐगी धराशाई। लेकिन गहलोत भी कोई कच्ची गोलियां नहीं खेले हैं उन्होंने तो वह डाल ही काट डाली जिसपर बैठकर वे शिकर खेलना चाहते थे।बसपा के कुल जमा छः विधायक ही कॉग्रेस की झोली में जा बैठे।और डॉ. साहब मुँह देखते ही रह गऐ......।
कुर्सी के लिऐ लोग न जाने क्या- क्या कर जाते हैं अब बसपा विधायकों ने यदि कुर्सी के लिऐ डॉ. साहब को यदि ठेंगा दिखा भी दिया तो भला कौनसा पहाड़ टूट गया। इन्होंने भी तो कुर्सी के लिऐ ही भाजपा क दामन छोडा था......।दूसरी तरफ गुंजल साहब भी अपनी गूजर वोटों की थैली जेब में लिऐ घूमते रह गऐ।लेकिन गहलोत जी थे कि पार्टी की सदस्यता वालों को ही टिकिट दिलाने पर अडे थे।आखिर उनका टारगेट 25 का अभियन जो था। अब यह अभियान कहाँ तक सफल होता है यह तो वक्त ही बतायेगा। फिलहाल तो दोनों हथों में लड्डू रखने वालों के मंसूबों पर पानी फिर ही गया।
अब जिनका मन भटक रहा हो कहीं ओर, कुर्सी का सपना दिख रहा हो कहीं ओर ।ऐसे लोगों का कोई कर भी क्या सकता है।इनके हालात से न तो ये पिघले और न ही वे....?कुल मिलकर अभी तो न घर के रहे न घाट के.....?
(दैनिक जन जागृति पक्ष में मेरे स्थाई कॉलम में 15-04-09 को प्रकाशित )
डॉ.योगेन्द्र मणि
Saturday, 11 April 2009
जूता फैंक प्रतियोगिता शुरू
जूता फैंक प्रतियोगिता शुरू
आजकल एक महारोग छूत के रोग की तरह फैलता हुआ प्रतीत हो रहा है। जिस तेजी से इसका प्रसार हो रहा है उसे देखकर सोचने पर मजबूर होना पडता है कि आखिर क्या होगा इस देश का......?वैसे तो हमारे देश की जनता हर विदेशी उत्पादन की बडी खूबसूरती से नकल कर लेती है ऐसा प्रायः सुना जाता है। कई बार तो नकल ही असल से ज्यादा असली लगती है। अब चाहे वह इलेक्ट्रोनि आइटम हो या अन्य घरेलू सामान। सभी मामलों में नकल में हमारा कोई मुकाबला नहीं है ।
हमारे वैज्ञानिकों का लोहा अमेरिका जैसा देश भी मानने लगा है ।
लेकिन आजकल बिना सोचे समझे हर अच्छी बुरी बात की नकल करना भला कहाँ की अकलमंदी है।इस मामले मे कोई माने या न माने हमारी श्रीमती जी का दिमाग सुपरफास्ट ट्रेन की तरह दौड़ता है। आज सुबह ही हमारे जूतों की कहानी क्या पढ़ी, कि हो गई राशन पानी लेकर चालू.। बोली- तुम काहे को अच्छे भले प्रजातंत्र की प्रजा को बिगाडने पर तुले हो ....?
हम हैरान -भाग्यवान यह आप क्या कह रही हैं । सभी कहते हैं कि हम जनता को राह दिखाने का काम करते हैं और आप हैं कि उलटा हमें ही दोष दे रही हैं कि हम जनता को बिगाड़ रहे हैं....।
वे फौरन बोली ओर नहीं तो क्या अमेरीका के बुश पर हो या भारत के गृह मन्त्री पर जूता फैंक कार्यक्रम भला किसने प्रारम्भ किया....? पत्रकारों ने ही न....? तो अब भुगतने के लिऐ तैयार रहो....। देश में जूता फैंक प्रतियोगिता प्रारम्भ हो गई है । आज एक भूतपूर्व अध्यापक ने आपका अनुसरण किया है एक सांसद पर जूता फैंक कर....। हम बड़बड़ाऐ -भागयवान जरा धीरे बोलो पड़ोसी सुनेगें तो क्या सोचेगें जैसे सचमुच हमने ही जूता फैंक प्रतियोगिता आयोजित करवा रखी हो। मैं तो किसी पर फूल तक फैंकने से घबराता हूँ और तुम हो कि सीधे ही मेरा नाम ले रही हो ...।वे तपाक से बोली - मेरा मतलब तुम्हारी पत्रकार बिरादरी से है।रास्ता तो उन्होंने ही दिखाया है तभी तो आज फिर जूता फैंका गया । आज जूते का शिकार एक सांसद को होना पड़ा...? क्या यही हमारी सभ्याता है...?
वास्तव में श्रीमती जी की बात तो सही है। और वो भी सोलह आने.....। विरोध जताने का भला यह कौनसा तरीका हुआ...और वह भी पढ़े लिखे सभ्य कहलाने वाले लोगॊं के द्वारा.......।ऐसा लगने लगा है जैसे जूता फैंक प्रतियोगिता हो रही है कि किसका निशाना कितना सही लगे....?
प्रश्न अब यह उठता है कि आखिर ऐसी स्थितिया पैदा ही कैसे हो गई जो आज जनता के प्रतिनिधी कहलाने वाले लोगों को जनता का आक्रोश इस तरह सहना पड़ रहा है। कथित प्रतिनिधी कहलाने वाले लोगों को सही मायने में जन प्रतिनिधी बनना होगा वरना एक समय ऐसा आयेगा कि ऐसे हादसे बढ़्ते जाऐगे और आप और हम एक दूसरे का मूँह देखते ही रह जाऐगें।
(जन जागृति पक्ष में मेरे स्थाई कॉलम में 11-04-09 को प्रकाशित)
डॉ. योगेन्द्र मणि
Friday, 10 April 2009
एक के साथ एक जोडी जूता फ्री
एक के साथ एक जोड़ी जूता फ्री
कल शाम को हमने सोचा कि चलो आज नये जूते ही खरीद लिऐ जाऐ। कई दिनों से हमारे एक पैर का पंजा जूते से बाहर निकलने की नाकाम कोशिश कर रहा था। हम जूते वाले की दुकान में पहुँचे और सस्ता, मजबूत टिकाऊ सा जूता दिखाने के लिऐ कहा तो उसने हमें पहले तो ऊपर नीचे तक निहारा फिर बोला-आप वही हैं न जो अखबार में फोटो के साथ रोजाना छपते हैं ।
हम मन ही मन गद्-गद हो गये चलो इतने बडे शहर में कोई तो मिला जो हमें पहिचानता है।वरना श्रीमती जी तो हमेशा कहती रहती हैं कि दिन भर कलम घसीटने से भला क्या फायदा...? अब हम उनसे कह सकते हैं कि कलम घसीटन से ही आज इतने बडे शहर में जूते वाला तक हमें पहिचनता है। हमनें उससे बडी आत्मीयता से पूछा-लगता है आप मेरा लिखा रोजाना पढ़ते हैं ?वह बडी शराफत से बोला _ पढ़ना कहाँ हो पाता है साहब...अब हम आपकी तरह निठल्ले तो हैं नहीं .....? दिन भर काम से ही फुरसत नहीं मिल पाती वो तो आपकी फोटो भी छपती है इसलिऐ पहिचान लिया ।शाम को आपकी फो्टो वाला अखबार जूतो की पेकिंग में ही काम आता है।
हमने जान पहिचान बढ़ाने की छोड़कर जुते दिखाने का आग्रह किया तो वह बोला- कितने जूते चाहिये आपको....? हमने कहा -कितने क्या एक जोडी जूते लेने हैं, अब एक बार में एक ही जोड़ी पहिन सकेगे....? दुकानदर ने सिर खुजलाते हुऐ कहा - तो आपको जूते पहिनने के लिऐ चाहिऐ...?
हम चकराऐ- श्रीमान जी जूते पैरों में पहिनने के लिऐ ही होते हैं उन्हें गले में तो लटकाया नहीं जा सकता ? वह तुरन्त बोला- बुरा मत मानियेगा साहब आजकल आपकी बिरादरी में जूता फैक प्रतियोगिता जो चल रही है, बस इसीलिऐ पूछ लिया था मैनें तो ।आगे आपकी मरजी है आप जूते गले में गले में लटकाऐं या फिर किसी नेता के ऊपर फैकें..?
हम बोले- आखिर आप कहना क्या चाहते हैं..?दुकानदार ने हमें समझाते हुऐ कहा-देखिऐ श्रीमान जी पहले अमेरिका के राष्ट्रपति पर आपकी ही बिरादरी के व्यक्ति ने जूता फैका था अब उसीका अनुसरण करते हुऐ यहाँ भी एक पत्रकार ने मन्त्री जी पर जूता फैक दिया इसीलिऐ मैंने आपसे पूछ था कि कहीं आपको भी फैकने के लिऐ जूते चाहिऐं क्या......?मेरे पास बहुत सा डेड स्टोक पड़ा है। यदि आपकी महरबानी हो जाऐ तो अपने मित्रों को भी हमारी दुकान का पता बताना ,आपको स्पेशल डिस्काउन्ट मिल जाऐगा.....एक जोड़ी फैकने वाले के जूतों के साथ पहिनने के जूते मुफ्त.....!
अब हम भी भला क्या जबाब देते उसके इस ऑफर का...?हमने फिलहाल जूते पहिनने का अपना कार्यक्रम स्थगित किया और चुपचाप वहाँ से बाहर निकल लेना ही उचित समझा ।अब ऐसे सिर फिरे लोगों का कोई कर भी क्या सकाता है जो कलम हाथ में लेकर जूते से अपनी बात समझान चाहते हैं........?
( दैनिक जन जागृति पक्ष में 10-04-09 को प्रकाशित )
डॉ. योगेन्द्र मणि
Thursday, 9 April 2009
जय हो के भय हो से कै हो
जय हो के भय हो से कै हो
हमारे देश से जब कोई विदेश जाकर वापस आ जाता है तो उसका मान सम्मान ,आदर सत्कार कुछ ज्यादा ही होने लगता है। हमारी सोच , उस व्यक्ति के प्रति बदल जाती है।क्योंकि फोरन रिटर्न का तमगा जो लग जाता है सीने पर....।लगता है हीरे की पहिचान केवल विदेशी लोगों को ही होती है। तभी तो फोरन का ठप्पा लगा नहीं कि लगे सभी उसके पीछे दौडने......!कुछ दिनों पहले टी.वी. पर शोर था, जय हो ...जय हो.......विदेश में एवार्ड मिला था जय हो को....सभी आँख बन्द कर दौड़ पड़े....जय हो के पीछे....।एक पार्टी ने तो बाकायदा ‘जय हो’ को रजिस्टर्ड भी करा लिया है। लेकिन कल तो गजब हो गया जुम्मन चाचा की जुबान पर जय हो की तर्ज पर नये ही शब्द थे। वे गुनगुना रहे थे भय हो.....भय हो........। हमने जुम्मन चाचा को समझाया -भला यह कौन सा नया सुर अलाप रहे हो.....भय हो.....भय हो......। सही गाना भय हो नहीं जय हो है.. जब गाने का शोक ही पाल रहे हो तो जरा ठीक से पालो और सही गाओ।जुम्मन चाचा हमारा मुँह ताकने लगे ,बोले -आप भी क्या गजब करते है।जय हो तो हाथ वाली पार्टी का है हमारा तो भय हो, ही है ।वे जय हो रजिस्टर्ड करा सकते हैं तो हम भी किसीसे कम थोड़ा ही हैं हम भय हो गायेगें।हमने पूछा -जुम्मन चाचा ‘भय’ भला किससे.....जनता से...कॉग्रेस से या फिर आपकी पार्टी से......? या फिर गुलजार साहब के जय हो से......? तभी हमें एक दूसरा ही स्वर कै हो....कै हो.....सुनाई दिया। हमने देखा कि भैय्या जी मस्ती में गाते हुऐ आरहे है....कै हो कै हो......। हमने भैय्या जी को स्वर पर ब्रेक लगाने को कहते हुऐ पूछा - भैय्या जी क्यों अच्छे भले गाने का बन्टाढ़ार करने पर तुले हो.......? तुम्हें कै नहीं हो रही तो क्यों चिल्ला रहे हो कि कै हो ...कै हो.....? लोग तो कै बन्द करने की दवा लेते हैं और तुम हो कि स्वर में गा -गा कर कह रहे हो- कै हो ....कै हो.......? कुछ उलटा सीधा तो नहीं खा लिया था कहीं...?(राजस्थान में कै ,उलटी होना या वमन को कहते हैं),लेकिन उन्होंने हमें बतया कि जय हो कि तरह ही एक पर्टी का यह भी चुनावी गीत है --कै हो.. कै हो....।बडी अजीब बात है सभी एक ही गाने के पीछे पडे है...आखिर विदेशों ने इस गीत को एवार्ड से जो नवाज गया है। गुलजर को ऑस्कर मिला है तो इन्हें लगता है कि गीत जरूर लकी है जिसके कारण ए.आर .रहमान कॊ भी ऑस्कर मिल गया। अब रहमान को गुलजार के कारण ऑस्कर मिला या गुलजार को रहमान के कारण....इसपर बहस बाद में फिलहाल तो सबको ऐसा लगता है कि इस धुन से ही उन्हें लोकसभा में बहुमत जरूर मिल जाऐगा...........?अब यह तो वक्त ही बताऐगा कि जय हो से किसको भय लगता है और किसको कै होती है और किसकी कै बन्द होती है...........?
(दैनिक जन जागृति पक्ष में 09-04-09 को प्रकाशित)
डॉ.योगेन्द्र मणि
Wednesday, 8 April 2009
राम से बडा राम का नाम
राम से बडा़ राम का नाम
भैय्या जी ने जैसे ही हमारे घर में प्रवेश किया बडे जोर से बोले -जय श्रीराम.........! जय श्रीराम का उद्घोष सुनकर हम चकराये,आज भैय्या जी को आज अचानक भला क्या हो गया जो इतनी जोर से जय श्रीराम कहना पड़ रहा है । हमने पूछ ही लिया- भैय्या जी आज तो बडे दिनों क्या बरसों बाद आपके मुँह से राम जी का नाम सुना है आखिर क्या बात है जो आज राम जी की याद आ गई ।
भैय्या जी ठहरे सीधे सच्चे जीव बोले तुम्हें मालूम नहीं चुनाव आ रहे हैं ।अब राम ही तो एक मात्र सहारा हैं। हमने तो घोषणा कर दी है कि राम मन्दिर जरूर बनाऐगें।हम बोले- भैय्या जी पिछली बार भी तो आपको मौका मिला था राम मन्दिर बनाने का,भला तब क्यों नहीं बनवाया राम मन्दिर......?वे बोले -आप भी क्या बात करते हैं जरा सोचो यदि तभी बनवा देते तो आज भला हम तुम्हारे सामने क्या कहते.....?वैसे भी जब हमारे सामने राम जी के मन्दिर से ज्यादा जरूरी कुछ और भी काम थे उन्हें भी तो करना था। तब हमने भी सोचा कि कुछ मुद्दा तो ऐसा होना ही चाहिऐ अपनी जेब में जिसे जब चाहो उपयोग कर लो। अब राम जी के नाम से अच्छा भला क्या हो सकता है...?
हमने कहा - यह तो सरासर ना इंसाफी है जनता के साथ। तुम्हारी बातों से तो लगता है कि तुम्हें केवल मुद्दा चाहिऐ ,राम जी नहीं। इसपर वे तपाक से बोले- राम जी का भला किसी को करना भी क्या है । ओरों को भी कुर्सी चाहिऐ और हमें भी अब कुर्सी चाहिऐ। अब कुर्सी राम जी दिलाऐ या फिर हनुमान जी भला क्या फर्क पडता है।उनकी इस दलील से हम सहमत नहीं थे । भला यह भी कोई बात हुई, जब चाहा राम नाम का जाप शुरू कर दिया और जब चाहा राम जी के नाम को फाइल में बन्द कर अंधेरे कूऐ में लटका दिया...? हमने कहा- भैय्या जी पिछली बार चुनाव में आपके राम जी विदेश यात्रा पर चले गये थे क्या ?उस समय तो किसी को याद ही नहीं आये हमारे आराध्य देव। और अबकी बार फिर एक बार याद आ गई ,लगता है देश की सारी समस्या राम मन्दिर से ही हल हो जाऐगी।भैय्या जी ने मायूस होते हुऐ कहा - पिछली बार राम जी को भूल गये थे तभी तो राम जी ने दंड दिया और कर दिया सत्ता से बाहर ।हम तो वैसे ही बदनाम हैं हिन्दूवादि और कट्टरवादी के नाम से....। तो फिर क्यों न अब खुल कर ही नाम लें राम जी का ।
हमने कहा- फिर तो इस बार मन्दिर बन ही जाऐगा यदि आपकी सरकार बनी तो...?
वे धीरे से बोले -आप लोगों की बस यही आदत तो खराब है ...। बस एक ही बात को खींचते चले जाते हैं। तुम्हें मालूम नहीं भक्तों का क्या कहना है राम से भी बडा राम का नाम होता है।इसलिऐ मन्दिर के पीछे भला आप क्यों पडे हो ? वह तो जब बनेगा बन जाऐग हमारा तो बस यही इरादा है कि इस बहाने कम से कम सभी श्री राम का नाम तो ले लेगें और जनता का क्या है जब तक चुनाव की ढ़्पली बजती रहेगी तब तक उसे भी याद रहता है , बाद भला किसको याद रहेगा कि किसने क्या कहा था........?
लेकिन अब इन नेताओं को भला कौन समझाऐ कि आज जनता जागरुक हो गई है यह किसी की बपोती नहीं जो जब चाहा जैसा चाहा नचा लिया । उलटे सीधे कुछ भी वादे किऐ और ताकत की गोली की तरह से निगल गये। चलो अब पांच साल के लेऐ तो संजीवनी बूटी मिल गई अगली बार फिर कोई नया फण्डा सोचेगें । लोकतन्त्र को अपनी बांदी समझने वालों को अब जनता मौका मिलने पर सबक भी सिखा सकती है । यह बात आज सभी को समझनी ही होगी। ताकि कोई भी राजनैतिक दल क्यों न हो जनता की उपेक्षा कर उसे बेवकूफ नहीं बना सके।
(दैनिक जन जागृति पक्ष में दि० 08/04/09 को प्रकाशित )
डॉ.योगेन्द्र मणि
Monday, 6 April 2009
काले धन की सफेद माया
काले धन की सफेद माया
हमारे नेताऒं का हमेशा एक ही रोना लगा रहता है कि देश के प्रत्येक नागरिक के सर पर भारी कर्जा है ।यहाँ जन नवजात शिशु जन्म लेत है तो कर्जदार बनकर ही पैदा होता है।हालाकि हमारे देश में प्रतिभाऐं बहुत हैं।आजकल तो हमारे बुद्धीप्रकाशों की विदेशों में बहुत माँग भी बड़ रही है फिर भी हमारे देश का कर्ज है कि हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़्ता ही जा रहा है।जानते हैं क्यों..........?
देश की जनता पसीना बहा रही है और नेता के रूप में देश की अर्थव्यस्था में लगी घुन देश को चतट करने में लगी है। मुझे भी इसका आभास नहीं था वह तो भला हो हमारी सद्बुध्दी दायनी श्रीमती का जो उसने अखबार हमारे सामने पटकते हुऐ कहा-ये देखो हमारे नेता महान......?हम चकराऐ,पूछा क्या हुआ भाग्यवान किसी नेता जी को दिल का दौरा पड गया क्या.......?उनका चेहरा वास्तव में देखने लायक था बोली-उन्हें भला क्यॊम दिल का दौरा पडने लगा , अगर पड भी जायेगा तो उनके बाप का भला क्या जाऐगा....? जेब तो जनता की ही कटनी है....? तुम्हें मालूम है विदेशों में कितना काला धन जमा है...?
हमने पूछा- क्यों भाग्यवान विदेशी बैंकों की आडिट करने का काम ले लिया है क्या तुमने.......? वे तपाक से बोली- ५से १४ खरब डालर तक स्विस बैंकों में जमा है यानी लगभग७००खरब रुपये हमारे देश का काला धन विदेशों में पडा धूल चाट रहा है।सुन कर हम भी सन्न रह गये। एक तरफ तो हम कहते हैं कि हमारे देश का बच्चा पैदा होते ही कर्जदार बन जाता है देश की खातिर ,और दूसरी तरफ जनता के भून पसीने का खरबॊं रुपया चन्द कालाबाजार के सरगनाओं के इशारे पर विदेशों में व्यर्थ ही पडा है।
ताज्जुब तो इस बात का होता है कि इस पैसे में अधिकांश हिस्सेदारी संभवतः कुछ तथाकथित नेताओं की भी है।वैसे नतागिरी भि आजकल नोट कमाने का अच्छा माध्यम बन गया है। तभी तो एक एम.एल.ए.भी पाँच साल में ही करोडपति बन जता है। जबकि देखा जाऐ तो वेतन तो उस्का एक शूल के अध्यापक के बराबर ही होता है फिर भी उसके पास नोतों का अम्बार लगता जाता है और उतनी ही वेतन पाने वाला एक आम नागरिक बडी मुशकिल से घर खर्चा चला पाता है।
हमारे वैज्ञानिक भी पता नहीं क्या करते हैं आज तक कॊई ऐसा इंजेक्शन भी नहीं बना सके जिससे राज करने वाले को लोगों में कुर्सी पर बैठने से पहले यदि लगा दिया जाऐ तो स्वतः ही उसमें ईमानदारी के कीटाणु पदा होने लग जाऐं। अब ऐसे सुन्दर सपने की तो हम और आप केवल कल्पना ही कर सकते हैं शेखचिल्ली के हसीन सपनों की तरह.....?
अर्थशास्त्रियों की माने तो हमारे देश पर कुल कर्जा २.२ खरब डालर है। अब यदि काले धन का कुछ हिस्सा मात्र ही यदि भारत में वापस आ जाऐ तो हमारे देश का सारा कर्ज ही चुक जाऐ। और हम दूसरे देशों को ही कर्ज देने लग जाऐ।
मगर भला ऐसा क्यों हो जाऐ.....?जो भी दल सत्ता में आता है ख्वाब जरूर दिखाता है कि हम विदेशों में जमा काला धन वापस लाऐगें मगर कुर्सी की ताजपोशी होते ही जाँच में ही पूरा समय निकल जाता है। अब वे भी करें तो क्या करें आखिर.........।क्योंकि वे भी जानते हैं कि कि कालए धन की गेरफ्त में खुद उनके लोग भी आ सकते हैं इसलिऐ बस टैम पास करते रहो बस..........।
डॉ.योगेन्द्र मणि
Sunday, 5 April 2009
चूहों पर पहरे की तैयारी
चूहों पर पहरे की तैयारी
भैय्या जी आज बडे बेचैन से दिख रहे थे सो हमने उनसे पूछ ही लिया क्या बात है भैय्या जी आज कुछ उदास से लग रहे हो। भैय्या जी ने लम्बी सांस ली और बोले - किसी को चूह काटता है तो दर्द भी होता होगा । हम बोले - भला इसमें कौन सी नई बात है अब चूहा काटे या कुत्ता ,दर्द तो होगा ही ।लेकिन आज तुम्हें भला चूहा कैसे याद आ गया ...।क्या राम नवमी पर गणपती जी ने दर्शन देकर तुम्हें आदेश दे दिया है कि जा बेट चूहों की सेवा करो नहीं तो चूहा तुम्हें काट लेगा....?
भैय्या जी बोले - नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं तो सोच रहा था कि यदि मैं अचानक कहीं रास्ते चलते मर जाऊँ तो मेरी गिनती लावारिस के रूप नहीं होनी चाहिऐ नहीं तो मुझे भी महाराव भीम सिंह अस्पताल के मुर्दाघर में पहँचा दिया जाऐगा । हम चकराऐ-भैय्या जी आज आपको भला लावारिस केई तरह मरने का खयाल अचनक कैसे आया भला....? और उसपर भी चूहा बीच में कहाँ से आगया........?
भय्या जी बोले -तुम्हें नहीं मालूम क्या ,अखबार में लिखा है की महाराव भीम सिंह अस्पताल में बडे-बडे चूहों का आतंक फैला है.....।हमने कहा चूहें भला कहाँ नहीं हैं आजकल,अब वे भी यदि बेचारे अस्पताल में पहुँच गये तो कौनसा पहाड़ टूट गया जो तुम इतनी बात को लम्बा कर रहे हो।
वे बोले -सवाल चूहों का नहीं है । वहाँ के चूहे मुर्दाघर के मुदों को चट कर जाते है। हमारा चौकना स्वाभाविक था बोले- अब चूहे तो चूहें है कुछ तो खाऐगे ही ।तुम्हें मालूम है कई सरकारी दफ्तरों में तो चूहों को फाइलों का आहार मिल जाता है। कुछ दफ्तरॊं में गाय माता का आहार बन जाती है फाइलें ।अब हो सकता है कि चूहा महाराज को आहार के रूप में कुछ मिल नहीं रहा होगा ,। बेचारा कुछ तो खाइगा ही....?
भैय्याजी बोले - इसीलिऐ तो मैं सोचता हूँ कि अपनी अंतिम इच्छा रजिस्टर्ड करवाकर हमेशा अपनी जेब में अपनेसाथ ही रखूं ताकि भगवान न करे कभी अकेले में अपनी बेटरी बन्द हो जाये तो कम से कम कोई मुझे इस विशाल काय अस्पताल में न ले जाये नहीं तो मेरे शरीर का भी ये चूहे कुतर-कुतर कर हुलिया ही बदल देगें।
हम उन्हें यह कैसे समझा सकते थे कि मरने के बाद की चिन्ता भला अभी से ही वे क्यों कर रहे हैं। यूं भी मरने के बाद किसे पता रहेगा कि हमारे शरीर का किसी ने क्या किया। मगर नहीं साहब उन्हें तो अपने मुर्दे की चिन्ता जिन्दा शरीर से भी ज्यादा सता रही थी। बोले-यदि ऊपर वाले के दरबार में मेरा आधा अधूरा शरीर पहूँचेगा तो वह भला कैसे पहिचानेगा कि मैं हि वो हूँ जिसका फरमान उसने भेजा था। ओर गलती से वापस उसने मेरे अधूरे शरीर की पूर्ती के लिऐ किसी और के शरीर को वहाँ बुला लिया तो.......?व्यर्थ में ही मरे साथ किसी ओर के परिवार का भी नुकसान हो जाऐगा।
उनकी चिन्ता भी वाजिब थी।ऊपर वाले के यहाँ बिना नाक कान या बिना आँख के कोई पहुँचेगा तो वास्तव में किसीको भी अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन कोई भला कर भी क्या सकता है।सरकार ने तो जाँच के आदेश दे दिऐ हैं। जो भी होगा देखा जाऐगा फिलहाल तो चूहों का आनन्द ही आनन्द है।
(जन जागृति पक्ष में ०५/०४/०९ को प्रकाशित
डॉ।योगेन्द्र मणि
चूहों पर पहरे की तैयारी
चूहों पर पहरे की तैयारी
भैय्या जी आज बडे बेचैन से दिख रहे थे सो हमने उनसे पूछ ही लिया क्या बात है भैय्या जी आज कुछ उदास से लग रहे हो। भैय्या जी ने लम्बी सांस ली और बोले - किसी को चूह काटता है तो दर्द भी होता होगा । हम बोले - भला इसमें कौन सी नई बात है अब चूहा काटे या कुत्ता ,दर्द तो होगा ही ।लेकिन आज तुम्हें भला चूहा कैसे याद आ गया ...।क्या राम नवमी पर गणपती जी ने दर्शन देकर तुम्हें आदेश दे दिया है कि जा बेट चूहों की सेवा करो नहीं तो चूहा तुम्हें काट लेगा....?
भैय्या जी बोले - नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं तो सोच रहा था कि यदि मैं अचानक कहीं रास्ते चलते मर जाऊँ तो मेरी गिनती लावारिस के रूप नहीं होनी चाहिऐ नहीं तो मुझे भी महाराव भीम सिंह अस्पताल के मुर्दाघर में पहँचा दिया जाऐगा । हम चकराऐ-भैय्या जी आज आपको भला लावारिस केई तरह मरने का खयाल अचनक कैसे आया भला....? और उसपर भी चूहा बीच में कहाँ से आगया........?
भय्या जी बोले -तुम्हें नहीं मालूम क्या ,अखबार में लिखा है की महाराव भीम सिंह अस्पताल में बडे-बडे चूहों का आतंक फैला है.....।हमने कहा चूहें भला कहाँ नहीं हैं आजकल,अब वे भी यदि बेचारे अस्पताल में पहुँच गये तो कौनसा पहाड़ टूट गया जो तुम इतनी बात को लम्बा कर रहे हो।
वे बोले -सवाल चूहों का नहीं है । वहाँ के चूहे मुर्दाघर के मुदों को चट कर जाते है। हमारा चौकना स्वाभाविक था बोले- अब चूहे तो चूहें है कुछ तो खाऐगे ही ।तुम्हें मालूम है कई सरकारी दफ्तरों में तो चूहों को फाइलों का आहार मिल जाता है। कुछ दफ्तरॊं में गाय माता का आहार बन जाती है फाइलें ।अब हो सकता है कि चूहा महाराज को आहार के रूप में कुछ मिल नहीं रहा होगा ,। बेचारा कुछ तो खाइगा ही....?
भैय्याजी बोले - इसीलिऐ तो मैं सोचता हूँ कि अपनी अंतिम इच्छा रजिस्टर्ड करवाकर हमेशा अपनी जेब में अपनेसाथ ही रखूं ताकि भगवान न करे कभी अकेले में अपनी बेटरी बन्द हो जाये तो कम से कम कोई मुझे इस विशाल काय अस्पताल में न ले जाये नहीं तो मेरे शरीर का भी ये चूहे कुतर-कुतर कर हुलिया ही बदल देगें।
हम उन्हें यह कैसे समझा सकते थे कि मरने के बाद की चिन्ता भला अभी से ही वे क्यों कर रहे हैं। यूं भी मरने के बाद किसे पता रहेगा कि हमारे शरीर का किसी ने क्या किया। मगर नहीं साहब उन्हें तो अपने मुर्दे की चिन्ता जिन्दा शरीर से भी ज्यादा सता रही थी। बोले-यदि ऊपर वाले के दरबार में मेरा आधा अधूरा शरीर पहूँचेगा तो वह भला कैसे पहिचानेगा कि मैं हि वो हूँ जिसका फरमान उसने भेजा था। ओर गलती से वापस उसने मेरे अधूरे शरीर की पूर्ती के लिऐ किसी और के शरीर को वहाँ बुला लिया तो.......?व्यर्थ में ही मरे साथ किसी ओर के परिवार का भी नुकसान हो जाऐगा।
उनकी चिन्ता भी वाजिब थी।ऊपर वाले के यहाँ बिना नाक कान या बिना आँख के कोई पहुँचेगा तो वास्तव में किसीको भी अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन कोई भला कर भी क्या सकता है।सरकार ने तो जाँच के आदेश दे दिऐ हैं। जो भी होगा देखा जाऐगा फिलहाल तो चूहों का आनन्द ही आनन्द है।
(जन जागृति पक्ष में ०५/०४/०९ को प्रकाशित
डॉ।योगेन्द्र मणि
Saturday, 4 April 2009
गोलमा का ओलमा
गोलम का ओलमा
हमारे देश में नारी का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रहा है। मेरे देश की नारियां अपने पति की आन- बान और शान के लिऐ बड़ी से बड़ी कुर्बानी से भी नहीं घबराती थी।तभी तो हमारे देश की नारियों को पतिव्रता नारी, देवी और न जाने किन किन सम्बोधनों से नवाजा जाता रहा है। वैसे पतिव्रता नारी आजकल इतिहास की वस्तु बनती जा रही है बड़ी मुश्किल से इस एतिहासिक घरोहर के दर्शन हो पाते हैं।लेकिन राजस्थानी घरती तो इस मामले में वैसे भी सबसे आगे है।यहाँ की महिलाऐं तो अपने पति के लिऐ सती तक होनें में भी नहीं घबराती हैं। सरकारी कानून लागू होने के बाद अब सती तो कोई होता नहीं है।लेकिन पतिव्रता होने पर कोई पाबन्दी नहीं है।
आजकल तो राजनीति में पत्नीव्रत नेता भी पैदा हो गऐ हैं। जो कि पत्नी के लिऐ अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिऐ तत्पर रहते हैं। कोई अपनी पत्नी को एम.पी.बनवा रहा है तो कोई एम.एल.ए.,या मन्त्री तक बनवाने के लिऐ पूरे दाव पेचों का उपयोग आजकल नेता जी करते रहते हैं।अब पत्नी का भी तो कुछ नैतिक दयित्व होता ही है । तभी तो राजस्थान सरकर में नई-नई बनी महिला मन्त्री जी ने भी पति के लिऐ शहीद होने वालों में अपन नाम दर्ज करा ही दिया।
आदरणीया गोलमा देवी ने गहलोत सरकार को ओलमा देते हुऐ मन्त्री पद को छोडने की पेशकश कर ड़ाली है। सुना है सोनिया जी को स्तीफा सौपा है। अब सबसे पहला प्रश्न मेरे दिमाग में कुलबुला रहा है कि उन्होंने स्तीफा लिखा कैसे होगा ,क्योंकि वे ही एक मात्र ऐसी मन्त्री हैं जिनके लिऐ काला अक्षर भैस बराबर है।साफ है स्तीफा लिखा भी उनके पति परमेश्वर माननीय किरोड़ी जी ने होगा और भेजा भी उन्होंने ही होगा ।
गोलमा मैय्या जी बन गई पतिव्रता पत्नी.....।इसपर तुर्रा ये कि मैं अपने पति का अपमान नहीं सह सकती। है न बड़ी अजीब सी बात ....? राजनीति में भला किसका अपमान और कैसा अपमान.........?
आज जो कमल का बोझा ढ़ो रहा है कल का कोई पता नहीं कि वह किस झण्डे के नीचे खड़ा मिले। कुछ लोग झण्डे के लिऐ जान तक देने की कसमें सरेआम खाते है और वे ही रातों रात न जाने किस वाशिंग मशीन में ब्रेन वाश कराकर आते है कि रात को उन्होंने क्या कहा सब भूल जाते हैं।नई सुबह नये वादे, नई पार्टी ,सब कुछ नया -नया सा , शायद उन्हें भी अच्छा लगता है और जनता तो भोली है ही वह तो यह तक भी भूल जाती है कि कौन नेता जी कब आये और चले गये ।नेता जी के अतीत और वर्तमान से उसे कोई सरोकार ही नहीं है।ठीक भी है जब किसी नेता को ही अपना अतीत को याद रखने का समय नहीं है तो भला जनता को क्या पडी है...?
नेताजी हैं कि अपनी पत्नी,बच्चे और पारिवारिक लोगों के भविष्य की चिन्ता में ही जीवन निकल देते हैं। जनता की सुध लेने का समय तो मात्र चुनाव के समय कूछ दिनों का ही मिल पाता है।ऐसे में गोलमा जी का ओलमा हमें तो वाजिब ही लगा वह एक अलग बात है कि भले ही वे कॉग्रेस की सदस्य नहीं हैं फिर भी स्तीफा कॉग्रेस पार्टी की अध्यक्ष् को भेजा है जिससे तो लगता है जैसे मूक भाषा मे कह रही हॊं कि हे सोनिया जी भले ही हम पार्टी के नहीं है फिर भी पार्टी के ही तो हैं आज नहीं तो कल तुम्हारी ही शरण में आना है फिलहाल दलबदल कानून से तो बचाऐ रखो वरना मुफ्त में ही पार्टी की सदस्यता लेते ही विधान सभा की सदस्यता से ही हाथ धोना पडेगा...कुछ तो रहम करो सोनिया जी हमारे पति रूपी परमेश्वर पर.........! !
डॉ योगेन्द्र मणि
Friday, 3 April 2009
करे कोई भरे कोई
करे कोई भरे कोई
आउट-आउट हर जगह से एक ही आवाज आ रही है। पहले यह आवाज केवल क्रिकेट के खेल के मैदान से ही आती थी लेकिन आजकल यह आवाज राजस्थान बोर्ड के परीक्षा केन्द्रॊं से आ रही है। रोजाना कहीं न कहीं से शोर सुनाई देता है कि आज फंला पेपेर बाजार में बिक रहा है और आज फंला.........?आखिर माजरा क्या है ये तो ऊपर वाला ही जाने मगर भैय्या जी ने कुछ अजब ही दासता बयान की।भैय्या जी का कहना है कि गधे ने लात मारी राहगीर को जेल हो गई।
हम उलझन में हमने कहा भैय्या जी बात क्या है हमारी कुछ समझ में नहीं आई। इसपर जुम्मन चाचा बोले -अखबार भी पढ़ते हो या केवल लिखते ही हो। कुछ पढ़ भी लिया करो।तुम्हें मालूम है एक परीक्षा केन्द्र पर दो दिन पहले ही आने वाला पेपर बांट दिया और जब गलती का अहसास हुआ तो सभी छात्राओं को वहीं स्कूल में ही अगली परीक्षा तक रोक लिया गया। इसपर भैय्या जी बोले - अब आप ही बताए कि उन लड़कियों का भला क्या दोष था जो उन्हें तीन दिन की सजा बैठे ठाले ही मिल गई।जुम्मन चाचा बोले- - वही तो मैं कह रहा हूँ कि गलती पेपर लाने वाले की , फिर बांटने वाले की, अब छात्राओं ने तो कहा नहीं था कि हमें आने वाला पेपर पहले चाहिऐ।
भैय्याजी ने कहा --वह तो मीडिया में बात आ गई इससे लड़कियों को छोड़ना पड़ा वरना तीन दिन तन बिना अपराध के सजा ही हो गई थी उनेको तो.....?जुम्मन चाचा ने बात बढ़ाते हुऐ कहा _ तुम्हें मालूम है बोर्ड अध्यक्ष क कहना है कि मैनें कहा है लड़कियों को रोकने के लिऐ....।
बात अजीब सी तो लगती है लेकिन है सोलह आने सही।वो तो भला हो जगरुक मीडिया का और साथ ही कुछ संगठनों का जिन्होंने बात को उठाया और बालिकाओं को आजाद कराया।वरना गुपचुप रूप से बालिकाओं को तो बिना बात ही हो गई थी जेल और जिसने गलती की वह मजे में घूम रहा था।
-ठीक है मानविक भूल हो जाती है तो भला यह भी क्या तरीका हुआ....?
अब लगता है राजस्थान बॊर्ड न हुआ कोई बिना पहरेदार की झोपडी हो गई जहां से कोई भी जाओ किसी भी पेपर को उठाकर बाजार में बेच आओ। और वे हैं कि रोजाना वही घिसा पिटा जबाब कोई पेपर आउट नहीं हुआ मात्र संयोग है कि कुछ प्रश्न मिल गये । वाह रे संयोग भाषा तक परीक्षा के पेपर से मिलती है इन गैस पेपर की।
लगता है पूरे कूऐ में ही भाँग मिली हुई है । तभी तो किसी को कुछ सूझता ही नहीं है।इसपर बोर्ड अध्यक्ष जी का तुर्रा यह कि मेरे कहने पर रोका है लडकियों को ।सरकार कहती है कि जाँच करेगें....आखिर किसकी जाँच करना चाहती है सरकार ......!हमारी तो समझ से बाहर है।हालाँकि विद्यालय के वीक्षक तथा परीक्षा अधीक्षक को निलम्बित कर दिया है ।लेकिन जिसके आदेश पर छात्राओं को दो दिन तक की कैद भोगनी पड़ी उसका क्या हुआ.......?वो तो अभी तक मजे में हैं ।
गलत पेपर बांटने वालों को तो सजा मिलनी चाहिऐ, मिलेगी भी......लेकिन बोर्ड अध्यक्ष जी का क्या होगा कहीं कोई जिक्र ही नहीं है। और होना भी नहीं चाहिऐ ....?क्योंकि वे तो मालिक है और मालिक गलती करते ही नहीं......... वे तो केवल आदेश देते हैं या फिर सजा देते हैं.......बस.....तभी तो --
क्षमा बडन का हक बनें
दिओ छोटों को लटकाय,
इन अफसर के कारणे
हम तुम धक्का खायें ॥
(जन जागृति पक्ष दैनिक में आज ०३/०४/०९ को )
डॉ.योगेन्द्र मणि
Thursday, 2 April 2009
लड्डू उनकी जेब का
लड्डू उनकी जेब का
कई बार इधर उधर से आवाजें आती रहती हैं कि वह अब आई-अब आई...खुल गई,खुलने वाली है.......और अब तो ही गई ......?आप सोचते होगें क्या पहेली है भला ......? तो जनाब राजस्थान में अभी पिछले दिनों महारानी जी का राज था,आपको मालूम है अब आप कहेंगें इसमें नया क्या हुआ....?नया तो कुछ नहीं पर महारानी जी ने कोटा वासियों के दिल में एक सपना जगाया था आई.आई. टी का ।बस तभी से कोटा वासियों को रात में बार बार आई.आई.टी. के हसीन और डरावने ख्वाब दिखाई देते रहते हैं।सबको लगता रहता है कि बस अब आई अब आई आई.आई.टी. कोटा की झोली में ।जब कभी भी अखबारों के किसी कोने में आई.आई.टी.छपा नहीं कि घंटाघर से लेकर पतली लम्बी गलियों तक में विशेषज्ञों की तरह हर कोई अपने ज्ञान का पिटारा खोल कर बैठ जाऐगा जैसे अभी तक सो- पचास यूनिवर्सिटी का कुलपति रह चुका हो.....।गोया आई.आई.टी.न हुई कोई अलादीन का चिराग हाथ लग जाऐगा जिससे कोटा रातों रात मुंबईया चेन्नई बन जाऐगा।
अभी कल ही मैनें जुम्मन चाचा से यूँ ही पूछ लिया-आई.आई.टी. यदि कोटा में खुल जाऐ तो तुम्हें कैसा लगेगा.....?इसपर वे तुरन्त बोले -ये भी कोई सवाल हुआ.....।मुझे अच्छा लगे या बुरा किसी पर क्या फर्क पडता है....?पूछना ही है तो यह पूछो कि नेताओं को कैसा लगेगा..........यदि आई.आई.टी.आई तब भी और नहीं आई तब भी....?
तभी दूसरे कोने से भैय्या जी प्रकट होते हुऐ बोले-जब यहाँ उनकी सरकार थी तो मौजूदा सरकार वाले टांग खिचाई करते हुऐ कहते थे कैसी सरकार है दमदारी से बात नहीं कह पा रही कोटा के हक को हम लेकर रहेगें .......।लेकिन आज जब यहाँ भी उनका राज और वहाँ भी उनका राज तब भला इनके मुँह पर ताले कैसे पडे है समझ नहीं आता ....?
हमारे मुख्यमंत्री जी कहते हैं गृहमंत्री आपका सडक मंत्री आपका ,पंचायत मंत्री आपका.....हाडोती के तीन-तीन दमदार नेता है ।लेकिन अर्जुन सिंह की हेकडी कहें या गहलोत जी की आंतरिक मंशा.......कि इन दमदारों की बोलतॊ बंद है......?
अब देखा जाऐ तो आई.आई.टी की राजनीति केवल घंटाघर से होते हुऐ रेलवे स्टेशन के प्लेट्फार्म पर दिल्ली का रास्ता ही भूल जाती है।यहाँ तो स्थिति यह हो गई है कि जब भी किसी को सपने में आई.आई.टी. की फोटो दिख जाती है तो दूसरे ही दिन चार आदमियों को साथ लेकर चल देता है ज्ञापन देने ।अखबारों में समचार आ जाता है फोटो छप जाती है बस हो गया अपना पूरा कर्तव्य....? लिखा दिया हमनें भी आई.आई. टी. के लिऐ आंदोलनकारियों में अपन नाम ......\ बस इतने से ही सीना चार इंच फूल जाता है। हो गया उपकार कोटा की जनता पर .......!अब और बेचारे इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं....?
अब भला इन्हें कौन समझाऐ कि अर्जुन सिंह के अडियाल दंभ को तोडने के लिऐ इससे कुछ नहीं होगा । क्यॊकि लगता है कोटा वालों ने पिछले जनम में जरूर कोई बुरे कर्म किऐ होगें तभी तो इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा तक के सेंटर भी उन्होंने कोटा से हटा दिये और नेता जी खामोश हैं क्योंकि उनके बच्चों को तो देनी ही नहीं हैं ये परीक्षाऐं.....।
हमारी जनता भी कितनी भॊली है कि बेचारी दूसरों के भरोसे बैठी है।बंधु जागो अब तो जागो.....? अब दिल्ली दरबार का दरवाजा खटखटाना पडेगा...और उन्हें अच्छी तरह समझाना पडेगा कि यह कोई उनकी जेब का लड्डू नहीं है जो जब चाहा दिखा दिया जब चाहा किसीको भी जाकर थमा दिया..........?
(कोटा राज से प्रकाशित जनजगृती पक्ष दैनिक में २।०४।०९ को छपा )डॉ.योगेन्द्र मणि
तलाश उम्मीदवार की
तलाश उम्मीदवार की
चुनाव तो चुनाव हैं चाहे पंचायत समिती के हों ,नगर पालिका, निगम या फिर विधान सभा अथवा लोकसभा के ही क्यों न हों ।चुनाव की घोषणा हुई नहीं कि घण्टाघर की तंग गलियों से लेकर जुम्मन चाचा और र्भैय्या जी की जुबान पर चुनाव को लेकर कभी भी वाक युध्द छिड़ जाता है।कमल वालों ने तो अपने उम्मीदवार को जनता के आगे लाकर खड़ा कर दिया लेकिन हाथ वालों के हाथ अभी खाली ही हैं ।
बस इसी बात को लेकर जुम्मन चाचा और भैय्या जी उलझे हैं। भैय्या जी बड़ी सोच में है बोले-जुम्मन चाचा, कॉग्रेस पार्टी का उम्मीदवार कहाँ गायब हो गया जो अभी तक मिल ही नहीं रहा है। आखिर माजरा क्या है ?
जुम्मन चाचा तपाक से बोले यह बात तुम मुझसे क्यों पूछ रहे हो...--? मैं कोई पार्टी का नेता हूँ --?भैय्या जी तुरन्त बोले नहीं मैं तो यूँ ही जिक्र कर रहा था ।अब बॉरा-झालावाड़ में तो नये नेता भाया जी तुरन्त अपने घर का ही उम्मीदवार ले आये,फिर यहाँ भला कैसा अकाल पड़ा है जो इन्हें कोई मिल ही नहीं रहा । जुम्मन चाचा बोले-तुम्हें मालूम नहीं यहाँ नेताओं की कमी थोडा ही है यहाँ तो हर कोई लाइन में लगा है।सवाल यह है कि आखिर टिकट दें तो दें किसको.....?भैय्या जी ने बात बढाते हुऐ कहा - हमें तो लगता है यहाँ पार्टी की नाक के सवाल से ज्यादा अब गृहमंत्री जी की नाक का आ गया है।
इसपर जुम्मन चच बोले-देखा जाऐ तो हमें भी कुछ ऐसा ही लग रहा है।एक तरफ जहाँ बॉरा-झालावाड़ क्षेत्र में नये मन्त्री जी अपने पैर मजबूत करने में लगे हैं वहीं हमारे गृहमन्त्री जी तो पहले से ही मजबूत है ,वे भला अपने क्षेत्र में किसी भी ऐसे व्यक्ति को टिकिट क्यॊं दिलाऐगें जिससे उनके नम को बट्टा लगे । कल को लोग भला क्या कहेगें ?जो आदमी पूरे प्रदेश की व्यवस्था सम्भालें हुऐ हैं लेकिन अपना शहर ही नहीं सम्भाल पा रहा है।
हमारे विचार से अब सबसे बड़ा झमेल तो यह फंस गया कि हडोती के दो ऐसे मन्त्री जो आपस में गुरू चेले भी है।दोनों की ही शन का सवाल है।चेले जी के करण बरसों बाद कॉग्रेसियों को उम्मीद जगी है कि वे महारानी जी के लाड़ले का सामना भी कर सकेगॆं। वरना अभी तक तो केवल मजबूरी में ही किसी न किसी कॊ बळी का बकरा बनना पड़ता था महारानी जी के सामने।
अब ये भी उम्मीदवार घोषित करें भी तो कैसे करें ,जहाँ एक तरफ किरोडी़ जी का रोडा़ बीच में आता है तो दूसरी तरफ गुंजल की गूँज कानों तक पहुँचती है।इन सब के बीच धरीवाल जी की धार का भी सवाल अटका हुआ है।क्योंकि कहीं एसा न हो जाऐ कि फाइनल परीक्षा में गुरूजी के नम्बर कम न आ जाऐं-----? वरना कल को लोग तो ये ही कहेंगे कि गुरू जी तो गुड़ रह गये और चेला-------???आपके साथ हम भी थोड़ा और कर लेते हैं इंतजर देखते है कि आखिर ऊँट किस करवट बैठता है --- ?
(उपरोक्त लेख कोटा से प्रकाशित -जनजागृती पक्ष दैनिक समाचार पत्र १.०४.०९के अंक में मेरे स्थाई स्तम्भ में छपा है) डॉ. योगेन्द्र मणि
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